Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 368
________________ पञ्चदश ] आलोचनाविधि पञ्चाशक बड़े से बड़े प्रायश्चित्त को भी पूरा कराने में समर्थ होता है। - ७. अपायदर्शी – इस लोक सम्बन्धी दुर्भिक्ष और दुर्बलता आदि अनिष्ट को देखने वाला। ऐसा गुरु जीवों को परलोक में दुर्लभबोधि होने आदि की सम्भावना बतलाकर आलोचक का उपकार करता है। ८. अपरिश्रावी - आलोचक के द्वारा कहे हुए दुष्कृत्यों को दूसरों से न कहने वाला। आलोचक के दुष्कृत्य दूसरों से कहना लघुता है। ९. परहितोद्यत - परोपकार में तत्पर । जो परोपकारी नहीं होता है, वह दूसरों की अवज्ञा करता है। १०. सूक्ष्मभावकुशलमति : दूसरों की अपेक्षा लौकिक शास्त्रों का अधिक सूक्ष्म ज्ञाता । ११. भावानुमानवान् – दूसरों के चित्त के भावों को अनुमान से जानने वाला । ऐसा गुरु दूसरों के भाव के अनुसार प्रायश्चित्त देने में समर्थ होता है। उक्त गुणों से रहित गुरु आलोचनाकर्त्ता के दोषों की शुद्धि कराने में समर्थ नहीं होता है ।। १४-१५ ।। तीसरा द्वार 'क्रम' का विवरण दुविणऽणुलो आसेवणाणुलोमं जं जह आसेवियं आलोयणाणुलोमं गुरुगऽवराहे उ पच्छओ वियडे । पणगादिणा कमेणं जह जह पच्छित्तवुड्डी उ ॥ १७ ॥ द्विविधेनानुलोम्येन आसेवना - विकटनाभिधानेन । आसेवनानुलोम्यं यद्यथा आसेवितं विकटयति ॥ १६ ॥ आलोचनानुलोम्यं गुरुकापराधांस्तु पश्चाद्विकटयति । पञ्चकादिना क्रमेण यथा यथा प्रायश्चित्तवृद्धिस्तु ॥ १७ ॥ आसेवणवियडणाभिहाणेणं । Jain Education International २६३ वियडे ॥ १६ ॥ आसेवना और विकट आलोचना इन दो क्रमों से आलोचना करनी चाहिए। जिस क्रम से दोषों का सेवन किया हो उसी क्रम से दोषों को कहना आसेवना क्रम कहलाता है ।। १६ ।। — छोटे अतिचारों को पहले कहना चाहिए फिर बड़े अतिचारों को अर्थात् पञ्चकादि प्रायश्चित्त के क्रम से ज्यों ज्यों प्रायश्चित्त की वृद्धि हो त्यों-त्यों दोषों को कहना विकट - आलोचना क्रम कहलाता है, जैसे सबसे छोटे अतिचार में 'पंचक' प्रायश्चित्त आता है, उससे बड़े अतिचार में 'दशक' और उससे बड़े अतिचार में पंचदशक' प्रायश्चित्त आता है। इसलिए इसी क्रम से दोषों को कहना आलोचना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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