Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 432
________________ अष्टादश ] भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पञ्चाशक ही वह प्रतिमाकल्प को स्वीकार करे तो उसे गच्छ की उपेक्षा मानी जायेगी, अन्यथा नहीं। इस प्रकार प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने पर गच्छ की उपेक्षा न यह विचार इस बात का प्रमाण है कि प्रतिमाकल्प गुरुलाघव की विचारणा से युक्त है ।। ३४ ।। हो 'प्रव्रज्या लेने वाला कोई न हो' इस युक्ति का समर्थन परमो दिक्खुवयारो जम्हा कप्पोचियाणवि णिसेहो । सइ एयम्मि उ भणिओ पयडो च्चिय पुव्वसूरीहिं ।। ३५ ।। परमो दीक्षोपकारो यस्मात् कल्पोचितानामपि निषेधः । सति एतस्मिंस्तु भणित: प्रकट एव पूर्वसूरिभिः ।। ३५ ।। भव्य जीवों को दीक्षा देना अन्य उपकारों की अपेक्षा श्रेष्ठ उपकार होता है, क्योंकि दीक्षा मोक्ष का कारण है। भद्रबाहुस्वामी आदि पूर्वाचार्यों ने संहनन, श्रुत आदि सम्पन्न प्रतिमाकल्प के योग्य साधुओं को भी यदि दीक्षा का उपकार होता हो तो प्रतिमाकल्प धारण करने का स्पष्ट निषेध किया है। कल्प को स्वीकार करने के बाद दीक्षा नहीं दी जा सकती, इसलिए प्रतिमाकल्प को स्वीकार करते समय यदि कोई दीक्षा लेने आये तो पहले उसे दीक्षा देनी चाहिए। क्योंकि दीक्षा प्रदान करना प्रतिमाकल्प की अपेक्षा भी अधिक लाभदायी है ।। ३५ ।। दीक्षादान के समय प्रतिमाकल्प स्वीकार करने का स्पष्ट निषेध अब्भुज्जयमेगयरं पडिवज्जिकामों सोऽवि पव्वावे । गणिगुणसलद्धिओ खलु एमेव अलद्धिजुत्तोवि ॥ ३६ ॥ अभ्युद्यतमेकतरं प्रतिपत्तुकामः सोऽपि प्रव्राजयति । गणिगुणस्वलब्धिकः खलु एवमेव अलब्धियुक्तोऽपि ।। ३६ ।। अभ्युद्यतमरण (समाधिमरण) और प्रतिमाकल्प इन दो में से किसी एक को स्वीकार करने की इच्छा वाला गणिगुण और स्वलब्धि से युक्त साधु भी कल्प आदि को स्वीकार करते समय भी सर्वप्रथम दीक्षा लेने आनेवाले योग्य जीव दीक्षा दे। जो गणि- गुण और स्वलब्धि से युक्त न हों वे भी यदि लब्धियुक्त आचार्य की निश्रा वाले हों तो सर्वप्रथम दीक्षा दें, उसके पश्चात् कल्प आदि धारण करें ।। ३६ ।। Jain Education International ३२७ २९वीं गाथा में कर्मव्याधि की प्रव्रज्यारूपी चिकित्सा को भाव से स्वीकार करने वाले साधु की अन्य जिन अवस्थाओं का निर्देश किया है, उसका कारण यहाँ बतलाया जा रहा है - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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