Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 406
________________ स्थितास्थितकल्पविधि पञ्चाशक राजपिण्ड लेने में दोष ईसरपभितीहिं तहिं वाघातो खद्ध लोहुदाराणं । ण अप्पमादाओ ।। २१ ॥ दंसणसंगो गरहा इयरेसि ईश्वरप्रभृतिभिस्तस्मिन् व्याघातः प्रभूतलोभोदाराणाम् । दर्शनसंगो गर्हा इतरेषां न अप्रमादात् ।। २१ ।। राजपिण्ड लेने से व्याघात, लोभ, एषणाघात, आसक्ति, उपघात और गर्हा (आदि) दोष लगते हैं। सप्तदश ] १. व्याघात - राजकुल में भोगिक, तलवर, माण्डलिक आदि सपरिवार आते-जाते रहते हैं, इसलिए साधुओं को राजकुल में आने-जाने में परेशानी होती है या विलम्ब होता है, जिससे साधु के दूसरे कार्य रुक जाते हैं। २. लोभ एवं ३. एषणाघात राजकुल में अधिक आहार मिलता है, जिससे लोभ बढ़ता है और लोभ से एषणा का घात होता है। ४. आसक्ति सुन्दर शरीर वाले हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुरुष आदि को देखने से उनके प्रति आसक्ति होती है। ― ५. उपघात • साधुओं के ऊपर जासूस, चोर आदि की शङ्का करके राजा उनको निर्वासन, ताड़न आदि रूप उपघात कर सकता है। ६. गह ये साधु राजपिण्ड लेते हैं, इस प्रकार की निन्दा होती है। उपर्युक्त दोष मध्यवर्ती जिनों के साधुओं को नहीं लगते हैं, क्योंकि वे उन दोषों को दूर करने में समर्थ होते हैं । वे ऋजु और प्राज्ञ होने के कारण अप्रमत्त होते हैं। प्रथम और अन्तिम जिनों के साधु उन दोषों को दूर नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे जड़ होते हैं ।। २१ ।। राजपिण्ड के आठ प्रकार असणादीया चउरो वत्थं पायं च कंबलं चेव । पाउंछणगं च तहा अट्ठविहो रायपिंडो उ ॥ २२ ॥ अशनादिकाश्चत्वारो वस्त्रं पात्रं च कम्बलं चैव । पादप्रोञ्छनं च तथा अष्टविधो अशन, पान, खादिम और स्वादिम और रजोहरण ये चार, इस प्रकार कुल है ।। २२ ।। - Jain Education International ――――― राजपिण्डस्तु ।। २२ ।। ३०१ १. 'खद्ध' यह देशी शब्द है, जिसका अर्थ होता है - समृद्ध । द्रष्टव्य कोश | कम्बल ये चार तथा वस्त्र, पात्र, आठ प्रकार का राजपिण्ड होता For Private & Personal Use Only प्राकृत-हिन्दी www.jainelibrary.org

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