Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 423
________________ [ अष्टादश १३. विस्तर ( संथारा) उपाश्रय आदि की याचना, सूत्र - अर्थ सम्बन्धी या गृहादि सम्बन्धी पूछताछ, तृण, काष्ठ आदि की अनुमति, सूत्रादि सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देना, इन चार प्रसंगों पर ही बोलना चाहिए। ३१८ पञ्चाशकप्रकरणम् १४. त्याज्य स्थलों को छोड़कर निर्दोष धर्मशाला, खुला घर या वृक्षादि के नीचे ही रहें ।॥ ९ ॥ - १५. कारणवश सोना पड़े तो पृथ्वीशिला, बिना छेद के काष्ठपट्ट या घास के बिछौने पर सोना चाहिए। १६. उपाश्रय में आग लग जाये तो भी भयभीत न हो, यदि कोई निकाले तो निकलें। १७. पैर में काँटा आदि चुभ जाये या आँख में कुछ पड़ जाये तो उन्हें स्वयं न निकालें ॥ १० ॥ १८. सूर्यास्त के समय जहाँ हों वहीं सूर्योदय तक रहें। वहाँ से एक कंदम भी आगे न बढ़ें। १९. प्रासुक जल से भी हाथ-पैर या मुँह न धोएँ ॥ ११ ॥ २०. दुष्ट हाथी, घोड़ा, सिंह, बाघ आदि आयें तो रास्ते से नहीं हटे, क्योंकि साधु यदि हट भी जाये तो वे प्राणी वनस्पति आदि की विराधना करेंगे, इसलिए प्रतिमाधारी साधु को रास्ते से नहीं हटना चाहिए । २१. (आदि शब्द से ) छाया से धूप में और धूप से छाया में न जायें। इन अभिग्रहों का पालन करता हुआ साधु महीना पूरा होने तक एक गाँव से दूसरे गाँव में परिभ्रमण करता रहे ।। १२ ।। मास पूर्ण होने के बाद की विधि पच्छा गच्छमईई एवं दुम्मासि तिमासि जा सत्त । णवरं दत्तिविवड्डी जा सत्त उ सत्तमासीए || १३ || पश्चाद् गच्छमत्येति एवं द्विमासा त्रिमासा यावत् सप्त । केवलं दत्तिविवृद्धिः यावत् सप्त तु सप्तमासिकायाम् ॥ १३ ॥ - मासकल्प पूर्ण होने के बाद भव्यता के साथ गच्छ में प्रवेश करे, जो इस प्रकार है जिस गाँव में गुच्छ हो उसके समीप के गाँव में वह साधु आये। आचार्य उसकी जाँच करें और इसकी सूचना राजा को दें और तब उसकी प्रशंसा करते हुए प्रवेश करावें । Jain Education International द्विमासिकी, त्रिमासिकी आदि से लेकर सप्तमासिकी भिक्षु प्रतिमा तक यही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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