Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 427
________________ ३२२ पञ्चाशकप्रकरणम् [अष्टादश एवं पडिमाकप्पो चिंतिज्जतो उ निउणदिट्ठीए । अंतरभावविहूणो कह होइ विसिउगुणहेऊ? ।। २४ ।। आह न प्रतिमाकल्पे सम्यग् गुरुलाघवादि चिन्तेति । गच्छाद् विनिष्क्रमणादि न खलु उपकारकं येन ।। २१ ।। तत्र गुरुपारतन्त्र्यं विनयः स्वाध्याय: स्मारणा चैव । वैयावृत्यं गुणवृद्धिस्तथा च निष्पत्तिस्सन्तानः ।। २२ ।। एकादिदत्तिग्रहोऽपि खलु तथा स्वाध्यायाद्यभावतो न शुभः। अन्तादिनोऽपि पीडा धर्मकायस्य न सुश्लिष्टम् ॥ २३ ।। एवं प्रतिमाकल्प: चिन्त्यमानस्तु निपुणदृष्ट्या । अन्तरभावविहीनः कथं भवति विशिष्टगुणहेतुः? ।। २४ ।। प्रतिमाकल्प में प्रतिमाओं के गुरुलाघव (अधिक लाभ अथवा कम लाभ) की विधिवत् विचारणा नहीं हुई है, कुछ आचार्यों की मान्यता है कि गच्छवास अधिक लाभकारी (गुरु) है, क्योंकि उससे अपना और पराया – दोनों का उपकार होता है और गच्छनिर्गमन कम लाभकारी (लघु) है, क्योंकि उससे केवल अपना उपकार होता है। तपादि तो गच्छवास और गच्छनिर्गमन - दोनों में समान है। गच्छनिर्गमन और धर्मोपदेश न देना - दोनों ही लाभकारी नहीं हैं ॥ २१ ॥ क्योंकि गच्छ में रहने पर गुरुपारतन्त्र्य, विनय, स्वाध्याय, स्मारणा, वैयावृत्य, गुणवृद्धि, शिष्यसंसिद्धि और शिष्यपरम्परा – ये लाभ होते हैं। गच्छनिर्गमन से ये लाभ नहीं होते हैं। गुरुपारतन्त्र्य - आचार्य की अधीनता। यह सम्पूर्ण अनर्थों की कारणभूत स्वच्छन्दता को रोकता है। विनय - अहंकार का हनन करने वाला है। स्वाध्याय - स्वाध्याय पाँच प्रकार का है, यह मति रूप आँख को स्वच्छ बनाने वाले अंजन के समान है। _स्मारणा - भूले हुए कार्यों को याद करना स्मारणा है। कोई कर्म रूपी शत्रु के सामने लड़ने के लिए तैयार हुआ हो, किन्तु शस्त्र भूल गया हो, तो ऐसे में यह अमोघ शस्त्र को याद दिलाने वाला है। वैयावृत्य- भोजनादि से आचार्यादि की सेवा करना यह तीर्थकर पद प्राप्ति रूप फल को देने वाली है। गुणवृद्धि - ज्ञानादि गुणों की वृद्धि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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