Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 426
________________ अष्टादश ] भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पञ्चाशक ३२१ ३२१ बारहवीं प्रतिमा का स्वरूप एमेव एगराई अट्ठमभत्तेण ठाण बाहिरओ । ईसीपब्भारगओ अणिमिसणयणेगदिट्ठीए ।। १९ ।। साहट्ट दोऽवि पाए वाघारियपाणि ठायइ ट्ठाणं । वाघारि लंबियजुओ अंते य इमीएँ लद्धित्ति ।। २० ।। एवमेव एकरात्रिकी अष्टमभक्तेन स्थानं बहिस्तात् । ईषत्प्राग्भारगतोऽनिमिषनयनैकदृष्टिकः ॥ १९ ।। संहत्य द्वावपि पादौ व्याघारितपाणिस्तिष्ठति स्थानम् । व्याघारित-लम्बितयुतोऽन्ते च अस्या लब्धिरिति ।। २० ।। अहोरात्रि की प्रतिमा की तरह ही यह भी एकरात्रि की प्रतिमा है। इसकी विशेषताएँ निम्न हैं - १. चौविहार अट्ठम तप अर्थात् निरन्तर तीन दिन का निर्जल उपवास करना होता है। २. ग्रामादि के बाहर अथवा नदी के किनारे थोड़ा सा आगे झुककर कायोत्सर्ग मुद्रा में रहे । ३. किसी एक पदार्थ पर पलक झपकाये बिना स्थिर-दृष्टि रखे। ४. शरीर के सभी अंगों को स्थिर रखे। ५. दोनों पैरों को समेटकर और हाथ फैलाकर (जिनमुद्रा के रूप में अवस्थित होकर) कायोत्सर्ग में रहे। ६. इसका सम्यक् पालन करने से लब्धि उत्पन्न होती है। ७. यह प्रतिमा प्रथम रात्रि के बाद अट्ठम (अष्टम) तप करने से कुल चार दिन की होती है ।। १९-२० ॥ प्रतिमाकल्पविषयक मतभेद आह ण पडिमाकप्पे सम्मं गुरुलाघवाइ चिंतत्ति । गच्छाउ विणिक्खमणाइ ण खलु उवगारगं जेण ।। २१ ।। तत्थ गुरुपारतंतं विणओ सज्झाय सारणा चेव । वेयावच्चं गुणवड्डि तह य णिप्फत्ति संताणो ॥ २२ ॥ दत्तेगाइगहोऽवि हु तह सज्झायादभावओ' ण सुहो । अंताइणोवि पीडा धम्मकायस्स ण सुसिलिटुं ।। २३ ।। १. 'सज्झायाभावओ' इति पाठान्तरम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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