Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain, Kamleshkumar Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 395
________________ २९० पञ्चाशकप्रकरणम् आयुर्वर्जितानां तु । सप्तविधबन्धका भवन्ति प्राणिन तथा सूक्ष्मसम्परायाः षड्विधबन्धो 'विनिर्दिष्टाः ॥ ४० ॥ मोहायुर्वर्जानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः । उपशान्तक्षीणमोहः केवलिन एकविधबन्धाः || ४१ ।। विज्ञेया: ।। ४२ ।। मुहूर्त्तान्त: ।। ४४ ।। ते पुनर्द्विसमय-स्थितिकस्य बन्धका न पुनः सम्परायस्य । शैलेशीप्रतिपन्ना अबन्धका भवन्ति अप्रमत्तसंयतानां बन्धस्थितिर्भवति अष्ट तु उत्कर्षेण जघन्या भिन्नमुहूर्तं तु ये तु प्रमत्ता अनाकुट्टिकया बध्नन्ति तेषां संवत्सरान् अष्ट तु उत्कर्षेतरा . सामान्यतया सभी जीव आयुष्य के अतिरिक्त अन्य सात प्रकार के कर्मों का सतत बन्ध करते रहते हैं, क्योंकि आयुष्य कर्म का एक भव में एक ही बार (उसमें भी अन्तर्मुहूर्त तक ही) बँध होता है। दसवें सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान को प्राप्त जीव मोहनीय और आयुष्यकर्म के अतिरिक्त अन्य छ: प्रकार के कर्मों का बन्ध करते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली ये तीन गुणस्थान दो समय के बन्ध की स्थिति वाले हैं, इनमें एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। इनमें योगनिमित्तक बन्ध होता है, कषाय निमित्तक नहीं। क्योंकि कषायों का सर्वथा उदय नहीं होता। शैलेशी अवस्था को प्राप्त जीवों को कोई भी कर्मबन्ध नहीं होता है ।। ४०-४२ ।। Jain Education International बन्धस्थितिः । [ षोडश मुहूर्त्तान् । विज्ञेया ।। ४३ ।। — इस प्रकार प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से सभी अवस्थाओं में होने वाले बन्ध का कथन किया गया। अब स्थितिबन्ध की अपेक्षा से कथन करते हैं सातवें गुणस्थान में स्थित अप्रमत्तसंयत साधुओं को उत्कृष्ट से आठ मुहूर्त का और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का स्थितिबन्ध होता है ।। ४३ ।। For Private & Personal Use Only छठे गुणस्थान में स्थित प्रमत्तसंयत साधुओं में जो साधु जानबूझकर हिंसा आदि विराधना में प्रवृत्ति करते हैं, उनकी कर्मबन्ध की स्थिति उत्कृष्ट से आठ वर्ष और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की होती है ॥ ४४ ॥ उपर्युक्त विषय की प्रस्तुत विषय में योजना ता एवं चिय एयं विहियाणुट्ठाणमेत्थ हवइत्ति । कम्माणुबंधछेयणमणहं आलोयणादिजयं । ४५ ।। तस्मादेवमेव एतद्विहितानुष्ठानमत्र भवतीति । कर्मानुबन्धछेदनमनघम् आलोचनादियुतम् ॥। ४५ ।। -- www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472