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षोडश]
प्रायश्चित्तविधि पञ्चाशक
२८१
सद्दादिएसु रागं दोसं व मणे गओ तइयगम्मि । णाउँ अणेसणिज्जं भत्तादि विगिंचण चउत्थे ।। १७ ।। उस्सग्गेण विसुज्झति अइयारो कोइ कोइ उ तवेणं । तहविय असुज्झमाणे छेयविसेसा विसोहंति ।। १८ ।। भिक्षाचर्यादिः शुद्ध्यति अतिचारः कोऽपि विकटनया तु । द्वितीयस्तु असमितोऽस्मीति कस्मात्? सहसाअगुप्तो वा ।। १६ ।। शब्दादिकेषु रागं दोषं वा मनसि गतस्तृतीयके । ज्ञात्वा अनेषणीयं भक्तादि विगिचण' चतुर्थे ।। १७ ।। उत्सर्गेण विशुद्ध्यति अतिचारः कोऽपि कोऽपि तु तपसा । तथापि च अशुद्ध्यति छेदविशेषा विशोधयन्ति ।। १८ ॥
भिक्षाटन, स्वाध्याय आदि के निमित्त आने-जाने से होने वाला कोई अत्यन्त सूक्ष्म अतिचार आलोचना से ही शुद्ध हो जाता है। यह अतिचार प्रथम शल्य के समान है और उसकी आलोचना प्रथम शल्योद्धार के समान ही है । जिस प्रकार प्रथम शल्य में शल्योद्धार के अतिरिक्त और दूसरा कोई उपाय आवश्यक नहीं है, उसी प्रकार इसमें भी आलोचना के अतिरिक्त और कोई दूसरा प्रायश्चित्त करना आवश्यक नहीं है। समिति, गुप्ति आदि के भंग रूप द्वितीय प्रकार का अतिचार – अरे ! मैं अचानक कैसे असमित और अगुप्त हो गया ? असमित और अगुप्त होने का कोई कारण ही नहीं है ! इस प्रकार पश्चात्ताप सहित 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' रूप प्रतिक्रमण (चिकित्सा) से दोष दूर हो जाता है। यहाँ प्रतिक्रमण रूप चिकित्सा द्वितीय प्रकार के शल्योद्धार में व्रणमर्दन तुल्य है ।। १६ ।।
इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों में केवल मन से राग-द्वेष करने वाला मुनि तीसरी व्रणमर्दन और कर्णमलपूरण के समान मिश्र (आलोचना एवं प्रतिक्रमण) नामक चिकित्सा से शुद्ध होता है। अनेषणीय भोजनग्रहण रूप अतिचार चतुर्थ शल्य के समान है। यह भोजन को अशुद्ध जानकर उसे त्यागने रूप (खून निकालने के समान) विवेक नाम की भाव-चिकित्सा से शुद्ध होता है ॥ १७ ॥
पाँचवें शल्य के समान अशुभ स्वप्न आदि रूप कोई अतिचार कायोत्सर्ग (क्रिया-निषेध के समान) नाम की भावचिकित्सा से शुद्ध होता है। पृथ्वीकाय संघट्टन आदि अतिचार छठे शल्य के समान हितमित भोजन या सरस भोजनत्याग रूप नीवी आदि तपों की भावचिकित्सा से दूर होता है। तप से भी अतिचारशल्य या भावव्रण दूर न हो तो उसे खराब माँसादि
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