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नवम ]
यात्राविधि पञ्चाशक
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४. अमूढदृष्टि - मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्ग के धारक जीवों का मन, वचन और काय से अनुमोदन न करना।
५. उपबृंहणा - आराधक के गुणों की प्रशंसा करके उसके गुणों की वृद्धि करना।
६. स्थिरीकरण -- स्वयं को एवं अन्य व्यक्तियों को धर्म में स्थिर करना।
७. वात्सल्य - साधर्मिक का भोजन वस्त्रादि से सम्मान करना।
८. प्रभावना – दूसरे जीव जैनशासन के प्रति आकृष्ट हों, ऐसा आचरण करना।
जिनयात्रा प्रभावना का कारण है पवरा पभावणा इह असेसभावंमि तीएँ सब्भावा । जिणजत्ता य तयंगं जं पवरं ता पयासोऽयं ।। ३ ।। प्रवरा प्रभावनेह अशेषभावे तस्याः सद्भावात् । जिनयात्रा च तदंगं यत्प्रवरं तत्प्रयासोऽयम् ।। ३ ।।
सम्यग्दर्शन के आठ आचारों में प्रभावना प्रधान आचार है, क्योंकि जो नि:शंकित आदि आचारों से युक्त है वही शासन की प्रभावना कर सकता है। जिनयात्रा जिनशासन की प्रभावना का प्रधान कारण है, इसलिए यहाँ जिनयात्रा विधि का वर्णन किया गया है ।। ३ ।।
जिनयात्रा शब्द का अर्थ जत्ता महूसवो खलु उद्दिस्स जिणे स कीरई जो उ । सो जिणजत्ता भण्णइ तीएँ विहाणं तु दाणाइ ।। ४ ।। यात्रा महोत्सवः खलु उद्दिश्य जिनान् स क्रियते यस्तु । सो' जिनयात्रा भण्यते तस्याः विधानन्तु दानादि ।। ४ ।।
वह महोत्सव जो जिनों को उद्दिष्ट करके किया जाता है, जिनयात्रा है। उस जिनयात्रा की विधि दानादि रूप है ।। ४ ।।
महोत्सव में करने योग्य दानादि का निर्देश दाणं तवोवहाणं सरीरसक्कारमो जहासत्ति ।
उचितं च गीतवाइय थुतिथोत्ता पेच्छणादी' या ।। ५ ॥ १. सो = यात्रामहोत्सव इत्यर्थः। २. 'पेथणादी' इति पाठान्तरम्।
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