Book Title: Paiso Ka Vyvahaar Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Mahavideh Foundation View full book textPage 6
________________ लक्ष्मी सही रास्तों पर, मंदिर में या लोगों को भोजन कराने में व्यय करने को सूचित करते थे। और वह भी उस व्यक्ति की निजी आमदनी की जानकारी उनसे और उनके कुटुम्बीजनों के पास से चौकसी से प्राप्त करने के बाद, सभी की स्वेच्छा जानकर, बाद में 'हाँ' कहते! संसार व्यवहार में पूर्णतया आदर्श रहनेवाला, संपूर्ण वीतराग पुरुष जैसा आज तक दुनिया ने देखा नहीं, ऐसा पुरुष इस काल में देखने में आया। उनकी वीतराग वाणी सहज प्राप्त हुई। व्यावहारिक जीवन में निर्वाह के लिए लक्ष्मी प्राप्ति अनिवार्य है, फिर वह नौकरी करके या धंधा करके या फिर अन्य किसी तरीके से हो, मगर कलियुग में धंधा करते हुए भी वीतरागों की राह किस तरह चला जाये, उसका अचूक मार्ग पूज्यश्री ने अपने अनुभव के निष्कर्ष द्वारा प्रकट किया है। दुनिया ने कभी देखा तो क्या कभी सुना भी नहीं हो ऐसा बेजोड साझेदारी का 'रोल' उन्हों ने दुनिया को दिखाया। आदर्श शब्द भी वहाँ वामन प्रतीत होता है क्योंकि आदर्श वह तो सामान्य मनुष्यों द्वारा अनुभव के आधार पर तय किया गया प्रमाण है, जब कि पूज्यश्री का जीवन तो अपवाद रूप आश्चर्य है! व्यापार में साझेदारी छोटी उम्र से, २२ साल की उम्र से जिनके साथ की वह अंत तक उनकी संतानों के साथ भी आदर्श प्रणाली से उन्होंने यह साझेदारी निभाई। कान्ट्रैक्ट के धंधे में लाखों की आमदनी करते, पर नियम उनका यह था कि खुद नोन-मैट्रिक होकर नौकरी करे तो कितनी पगार मिले? पाँच सौ अथवा छ: सौ। इसलिए उतने ही पैसे घर में आने देने चाहिए बाकी के व्यवसाय में रखना जिससे घाटे के समय में काम आये! और सारा जीवन इस नियम को समर्पित रहे ! साझेदार के वहाँ बेटे-बेटीयों की शादी हो उसका खर्च भी आपश्री फिफ्टी-फिफ्टी पार्टनरशीप में करतें! ऐसी आदर्श साझेदारी वर्ल्ड में कहाँ देखने को मिलेगी? पूज्यश्री ने धंधा आदर्श रूप से बेजोड तरीके से किया, फिर भी चित्त तो आत्मा प्राप्त करने में ही था। १९५८ में ज्ञानप्राप्ति के उपरान्त भी कई सालों तक धंधा चलता रहा। लेकिन खुद आत्मा में और मनवचन-काया, जगत को आत्मा प्राप्त कराने हेतु गाँव-गाँव, संसार के कोने कोने में पर्यटन करने में व्यतित किया। वह कैसी अलौकिक दृष्टि संपन्न हुई कि जीवन में, व्यापार-व्यवहार और अध्यात्म दोनों 'एट-ए-टाइम' (एक ही समय) सिद्धि के शिखर पर रहकर संभव हुआ? लोक संज्ञा का प्राधान्य ही लक्ष्मी है, पैसा ही ग्यारहवाँ प्राण माना जाता है। वह प्राण समान पैसों का व्यवहार जीवन में जो हो रहा है उसके संबंध में, आवन-जावन के, नफा-नुकसान के, टिकने के और अगले अवतार में साथ में ले जाने के जो मार्मिक सिद्धांत है और लक्ष्मी स्पर्शना के जो नियम है, उन सभी को, ज्ञान में देखकर और व्यवहार में अनुभव करके वाणी के द्वारा जो ब्योरा प्राप्त हुआ वह, 'पैसों का व्यवहार' इस ग्रंथ के स्वरूप में सुज्ञ पाठकों को जीवनभर सम्यक जीवन जीने में सहायक होगा, यही अभ्यर्थना। डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंदPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49