________________
पैसों का व्यवहार
७३
७४
पैसों का व्यवहार
पुण्यानुबंधी पुण्य कौन-सा? प्रत्येक क्रिया में बदले की इच्छा नहीं करे वह पुण्यानुबंधी पुण्य ! सामनेवाले को सुख पहुँचाते समय किसी भी प्रकार बदले की इच्छा नहीं रखे, उसका नाम पुण्यानुबंधी पुण्य।
प्रश्नकर्ता : पैसा साथ ले जाना हो तो, किस तरह ले जा सकते
दादाश्री : रास्ता तो एक ही है। जो हमारे रिश्तेदार न हो ऐसे परायों के दिल को ठंडक पहुँचायी हो, तो साथ आये। रिश्तेदारों को ठंडक पहुँचायी हो तो वह साथ नहीं आता, पर हिसाब चुकता हो जाये।
अथवा हम (दादाजी) से कहें तो लोगों का कल्याण हो ऐसा ज्ञान दान दिखाएँ। अर्थात् अच्छे पुस्तक छपवायें कि जो पढ़ने से कई लोग सही रास्ते पर आ जाये। हमसे पूछने पर हम बतायें। हमें लेना-देना नहीं होता।
लोभी ने ऐसा माना है कि पैसे संग्रह करूँगा तो मुझे सुख मिलेगा और फिर दुःख कभी नहीं आयेगा। पर वह संग्रह करते करते लोभी हो गया, खुद लोभी बन गया। किफ़ायत करनी है, इकोनोमी करनी है, पर लोभ नहीं करना है।
लोभ कैसे पैठे? उसकी शुरूआत कहाँ से होगी? पैसे नहीं होते उस घडी लोभ नहीं होता। पर यदि निनानवे (रुपये) हए हो, तब मन में ऐसा हो कि आज घर में खर्च नहीं करेंगे पर एक रुपया बचाकर सौ पूरे करने हैं। यह लगा निनानवे का घक्का।। उस धक्के के बाद लोभ पाँच करोड होने पर भी नहीं छूटेगा। वह ज्ञानी पुरुष के धक्के से छूटेगा!
लोभी सुबह उठते ही लोभ करता रहे। सारा दिन उसी में जाये। कहेगा, भींडी महंगी है। बाल कटवाने में भी लोभ! आज बाईस दिन हुए है, पूरा महीना होने दो, कोई हर्ज नहीं होगा। आया समझ में? यह लोभ की ग्रंथि उसे बार-बार ऐसा दिखाती रहे और कषाय होते रहें। कपट और लोभ दोनों बहुत विकट है।
पाँच-पचास रुपये हाथ में होने पर भी खर्च नहीं करेगा। शरीर चलता नहीं हो तब भी रिक्शे पर खर्च नहीं करेगा। एकबार मैंने उसे कहा कि, ऐसा करो, कुछ रुपये रिक्शे में खर्च किया करो। तब वह कहे कि खर्च ही नहीं कर पाता। पैसे देने का संजोग हुआ कि खाना नहीं भाये। अब वहाँ हिसाब से तो मुझे भी मालूम पड़े कि यह गलत है। पर क्या हो सकता है? प्रकृति 'नहीं' कहती है। तब एक बार मैंने उसे कहा कि पैसों की रेजगी (सिक्के) लीजिए और रास्ते में बिखेरते हुए आइये! तब एक दिन थोड़े बिखेरे, फिर नहीं बिखेरे।
ऐसे दो-चार बार बिखेरने पर हमारा मन क्या कहेगा कि यह (चन्दुभाई) हमारे अंकुश में नहीं रहे, हमारी सुनते नहीं हैं। तो ऐसा करने पर हमारे मन आदि का परिवर्तन हो जाये। मन आदि जो कहते हों, हमें उससे उलटा करना पड़ें तभी वे हमारे अंकुश में रहें।
लोभ की ग्रंथि माने क्या? कहाँ कितने हैं? वहाँ कितने हैं? यही लक्ष में रहा करे। बैंक में इतने हैं, उसके वहाँ इतने हैं, अमुक जगह पर इतने हैं, यही लक्ष में रहा करे। 'मैं आत्मा हूँ' यह उसे लक्ष में नहीं रहेगा। वह लोभ का लक्ष टूट जाना चाहिए। मैं आत्मा हूँ' यही लक्ष रहना चाहिए।
लोभी तो स्वभाव से ही ऐसा होता है कि किसी भी रंग में नहीं रंगायेगा। उस पर कोई रंग नहीं चढ़ता। अगर कोई लोभी हो तो आप इतना देखा लेना कि उस पर कोई रंग नहीं चढ़ता! लाल रंग में डुबोयें तो भी पीला का पीला! हरे रंग में डुबोयें तब भी पीला ही पीला!
बिना लोभ वाले सभी हमारे रंग में रंगें जायें। किन्तु लोभी तो हँसे यानी हमें ऐसा लगें कि रंग गया। मैं जो बात कहूँ वह सारी बात सुनें। बहुत अच्छी बात, बहुत आनंद की बात, ऐसा-वैसा कहे, लेकिन भीतर तन्मयाकार नहीं होता। अर्थात् दूसरे लोग घर-बार भूल जाये पर वह नहीं भूलता। उसका लोभ नहीं भूलता। अभी उनके साथ उनकी गाड़ी में जाऊँगा तो पाँच बचेंगे, यह भूले नहीं। दूसरे तो पाँच बचाना भूल जायें। बाद में जायेंगे, ऐसा कहें। जबकि वह कुछ नहीं भूले। वह रंगाया नहीं