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पैसों का व्यवहार
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पैसों का व्यवहार
ऐसा कोई सिखायेगा ही नहीं न? नियम से अनीति करना वह कोई साधारण कार्य नहीं।
अनीति भी नियम से है तो उसका मोक्ष होगा, पर जो अनीति नहीं करता, जो रिश्वत नहीं लेता उसका मोक्ष कैसे होगा? क्योंकि जो रिश्वत नहीं लेता उसे, 'मैं रिश्वत नहीं लेता' यह कैफ़ चढ़ा होता है। भगवान भी उसे निकाल बाहर करेंगे कि, 'भाग यहाँ से, तू बदसूरत लगता है।' इसका यह अर्थ नहीं कि हम रिश्वत लेने को कहते हैं. पर यदि तझे
अनीति ही करनी हो तो तू नियम से करना। नियम करना कि भाई मैं रिश्वत में पाँच सौ रुपये ही लूँगा। पाँच सौ से ज्यादा कुछ भी दें, अरे पाँच हजार रुपये दें तब भी नहीं लूँगा। हमें घर खर्च में कम पड़ते हों उतने ही, पाँच सौ रुपये ही रिश्वत के लेना। बाकी, ऐसी जिम्मेवारी तो हम ही लेते हैं। क्योंकि ऐसे काल में लोग रिश्वत नहीं ले तो क्या करें बेचारे? तेल-घी के दाम कितने ऊपर चढ़ गये हैं। शक्कर के दाम कितने ऊँचे हैं? तब बच्चों की फ़ीस के पैसे दिये बिना थोड़े चलेगा?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : व्यापारी काला बाजार करते हैं, तब उनका गुजारा होता है। इसलिए हम कहते हैं कि रिश्वत भी नियम से लेना। तो वह नियम तुझे मोक्ष में ले जायेगा। रिश्वत बाधारूप नहीं है, अनियम बाधारूप है।
दादाश्री : नहीं, वह तो एक नियम, पाँच सौ माने पाँच सौ ही, फिर उस नियम में ही रहना होगा।
इस समय मनुष्य इन सब मुश्किलो में किस तरह दिन गुजारे? और फिर उसकी रुपयों की कमी पूरी नहीं होगी तो क्या होगा? उलझन पैदा होगी कि रुपयों की जो कमी है वे कहाँ से लायें? यह तो जितनी कमी थी उतने आ गये। उसका भी पझल फिर सोल्व हो गया न? वरना इसमें से मनुष्य उलटी राह चल पड़े और फिर उलटी राह आगे बढ़ता रहे और रिश्वतखोरी पर उतर आये। उसके बजाय यह बीच का रास्ता निकाला है, जिससे अनीति करने पर भी नीति कहलाये और उसे भी सरलता हो जाये, नीति कहलाये और उसका घर चले।
मूल वस्तुतः मैं क्या कहना चाहता हूँ यह यदि समझ में आ जाये तो कल्याण हो जाये। प्रत्येक वाक्य के द्वारा मैं क्या कहना चाहता हूँ यह सारी बात यदि समझ में आये तो कल्याण हो जाये। पर यदि वह अपनी भाषा में ले जाये तो क्या करें? प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र भाषा होगी ही, वह ले जाकर अपनी भाषा में फिट (अनुकूल) कर देगा, पर यह उसकी समझ में नहीं आयेगा कि 'नियम से अनीति करें।'
हम (दादाजी) भी व्यापारी लोग हैं। संसार में धंधा-रोजगार, इन्कमटैक्स आदि सभी हमारे भी हैं। हम कान्ट्रैकट का नंगा व्यवसाय करते हैं। फिर भी उसमें हम संपूर्ण 'वीतराग' रहते हैं। ऐसे 'वीतराग' कैसे रह पाते हैं? 'ज्ञान से।' अज्ञान से लोग दु:खी हो रहे हैं।
प्रश्नकर्ता : 'गलत' करने की इच्छा नहीं है, फिर भी करना पड़ता
प्रश्नकर्ता: अनीति करना तो गलत ही कहलाये न?
दादाश्री : वैसे तो उसे गलत ही कहते है न! पर भगवान के घर तो अलग ही तरह की व्याख्या है। भगवान के यहाँ तो नीति या अनीति, इसका झगड़ा ही नहीं है। वहाँ पर तो अहंकार ही बाधारूप होता है। नीति पालनेवालों के अहंकार बहुत होता है। उसे तो बगैर मदिरा के कैफ़ चढा होता है।
प्रश्नकर्ता : अब रिश्वत में पाँच सौ लेने की छूट दी तो फिर ज्योंज्यों जरूरत बढ़ती जाये त्यों-त्यों वह अधिक रकम ले तब?
दादाश्री : वह अनिवार्य करना पड़े, उसका पछतावा होना चाहिए। आधा घंटा बैठकर पछतावा करना चाहिए कि, 'यह नहीं करना है फिर भी करना पड़ता है। हमारा पछतावा जाहिर किया माने हम गुनाह से बरी हए। और यह तो हमारी इच्छा नहीं होने पर भी, अनिवार्य करना पड़ता है, उसका प्रतिक्रमण करना पड़े। ऐसा ही करना चाहिए' (यह भाव रहा)