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पैसों का व्यवहार
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पैसों का व्यवहार
प्रश्नकर्ता : हमारे साथ कोई चालाकी कर रहा हो तो हमें भी चालाकी करनी चाहिए न ? आज-कल लोग ऐसा ही करते हैं।
हमारे धंधे में घाटा आने पर कुछ लोगों को दुःख होता, वे मुझसे पूछते कि, 'कितना घाटा हुआ है? बड़ा घाटा हुआ है?' तब मैं कहता कि, 'घाटा हुआ था, पर अभी अचानक ही एक लाख रुपये का मुनाफा हुआ है!' इससे उसे ठंडक हो जाती।
यह तो सब मैंने अनुभव से निष्कर्ष निकाला था, बाकी मैं धंधे पर भी पैसे के बारे में सोचता नहीं था। पैसों के लिए सोचनेवाले जैसा फुलिश (मूर्ख) और कोई है ही नहीं! यह (पैसे कमाना) तो माथे पर लिखा है, जाने दीजिए न! घाटा भी माथे पर लिखा है। बिना सोचे भी घाटा होता है या नहीं होता?
धंधे में कोई चालबाज़ लोग मिल जाये और हमारे पैसे निगलने लगे, तब अंदरूनी तौर पर समझें कि हमारे पैसे हराम के हैं इसलिए ऐसे मिले हैं। वरना चालबाज मिलते ही क्यों कर? मेरे साथ भी ऐसा होता था। एक बार खोटे पैसे आये थे, तब सभी चालबाज ही मिल गये थे, फिर मैंने तय किया कि ऐसा धन नहीं चाहिए।
धंधा तो वह बेहतर कि जिसमें हिंसा नहीं समाई हो, किसी को दुःख नहीं होता हो। यह तो अनाजवाले का धंधा करे और तौल में से थोड़ा निकाल ले। आजकल तो मिलावट करना सिखें हैं। उसमें भी खाने की चीज़ों में मिलावट करनेवाला जानवर में जायें। चार पैर होने पर फिर गिरेगा नहीं न? व्यापार में धर्म रखना वरना अधर्म घुस जायेगा।
धंधे में, मन बिगाड़ने पर भी मुनाफा ६६,६१६ होगा और मन नहीं बिगाड़ने पर भी ६६,६१६ रहेगा, तब कौन सा धंधा करना?
धंधे में प्रयत्न करते रहना, आगे 'व्यवस्थित' अपने आप बंदोबस्त करेगा। आप सिर्फ प्रयत्न किया करना, उसमें प्रमाद नहीं करना। भगवान ने कहा है कि सब 'व्यवस्थित' है। मुनाफा हजार या लाख होनेवाला हो तो चालाकी करने से एक पैसा भी ज्यादा नहीं होगा और यह चालाकी अगले अवतार के लिए नये हिसाब जोड़ेगी सो अलग से!
दादाश्री : इसी प्रकार चालाकी का रोग लग जाता है। और यदि 'व्यवस्थित' का ज्ञान हाजिर रहा तो उसे धीरज रहेगा। यदि कोई हमसे चालाकी करने आये तो हम पिछले दरवाजे से (कोई उपाय करके) बाहर निकल जाये, हमें सामने चालाकी नहीं करनी है।
अर्थात् हम यह कहना चाहते हैं कि जैसे नहाने के पानी के लिए, रात सोने के लिए बिछौना या अन्य कुछ चीजों के लिए आप जरा भी विचार नहीं करते, फिर भी आपको वह मिलता है या नहीं? उसी प्रकार लक्ष्मी के लिए भी साहजिक रहना चाहिए।
पैसे कमाने की भावना करने की जरूरत नहीं है, प्रयत्न भले ही चालू रहे। ऐसी भावना से क्या होता है कि, अगर पैसे मैं खींच लूँ तो सामनेवाले के हिस्से में रहते नहीं। इसलिए कुदरती क्वॉटा (हिस्सा) जो निर्माण हुआ है, उसे ही हम रहने दें, उसमें फिर भावना करने की क्या जरूरत है? लोगों से पाप होतें रुक जायें इसलिए मैं यह समझाना चाहता हूँ।
यदि समझें तो, यह एक वाक्य में बड़ा सार समाया है। मुझसे ज्ञान प्राप्त करने की ज़रूरत है ऐसा नहीं है, ज्ञान नहीं लिया हो पर इतना उसकी समझ में आ जाना चाहिए कि यह सब हिसाब (अपने भाग्य) के अनुसार ही है, हिसाब के बाहर कुछ नहीं होता। वरना जब मेहनत करने पर भी घाटा आये तब क्या हम नहीं समझ जायेंगे! क्योंकि मेहनत माने मेहनत, मिलना ही चाहिए। पर ऐसा नहीं है, घाटा भी होता है न!
पैसे कमाने का भाव करते हैं उसका विरोध है। अन्य क्रियाओं के लिए मेरा विरोध नहीं। झूठ की परख नहीं होगी, वहाँ तक झूठ अंदर घुस जायेगा।
प्रश्नकर्ता : धंधे में यही सच्चाई है, ऐसा समझने पर भी सच्चाई हम बता नहीं सकते।