Book Title: Paiso Ka Vyvahaar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 30
________________ पैसों का व्यवहार पैसों का व्यवहार हो, तब फिर तेजी आने पर पत्नी भी हमारे पर रौब जमायेगी। इसलिए तेजी-मंदी में समानरूप से रहें। समानतापूर्वक रहने से आपका सब अच्छी तरह चलेगा। दादाश्री : अर्थात् व्यवहार हमारे अधीन नहीं है। निश्चय हमारे अधीन है। बीज बोना हमारे अधीन है, फल प्राप्त करना हमारे अधीन नहीं है। इसलिए हम भाव करें। खराब हो जाने पर भी हम अच्छा भाव करें कि ऐसा नहीं होना चाहिए। सेठ तो कौन कहलाये? (अपने आश्रित से) एक अक्षर भी ऊँचा बोले तो वह सेठ ही नहीं कहलाये! और वे डाँटने लगे तो समझना कि यह खुद ही असिस्टन्ट है!! सेठ के मुंह पर तो कभी कड़वाहट नजर ही नहीं आती। सेठ माने सेठ ही नज़र आये। वे अगर झिड़कियाँ देने लगे, तब सब के आगे उनकी क़ीमत क्या रह जायेगी? फिर तो नौकर भी पिछे से कहेंगे कि ये सेठ तो हरदम दुत्कारते रहते हैं ! झिड़कियाँ देते रहते हैं !! जाने दीजिए, ऐसे सेठ बनने से तो गुलाम बनना बहेतर । यदि आवश्यकता हो तो निपटाने हेतु अपनी ओर से बीच में एजन्सी रखें। पर डाँटने के ऐसे काम खुद सेठ को नहीं करने चाहिए! नौकर भी खुद लड़े, किसान भी खुद लड़े और अगर आप भी खुद लड़े तो फिर व्यापारी जैसा रहा ही कहाँ? सेठ ऐसा नहीं करते। कभी जरूरत पड़ने पर बीच में एजन्सी तैयार करें अथवा लड़नेवाला ऐसा आदमी बीच में रखें जो उनकी ओर से लड़े। फिर सेठ उस झमेले का समाधान करवा दें। १९३० में महामंदी थी। उस मंदी में सेठों ने इन बेचारे मझदूरों का बहुत खून चूसा था। इसलिए अब इस तेज़ी में मझदूर सेठों का खून चूसते हैं। ऐसा इस दुनिया का, शोषण करने का रिवाज़ है। मंदी में सेठ चूसे और तेजी में मझदूर चूसे। दोनों की परस्पर बारी आती है। इसलिए ये सेठ जब शोर मचाये तब मैं कहता हूँ कि आपने १९३० में मझदूरों को छोडा नहीं था, इसलिए अब ये मझदूर आपको छोडेंगे नहीं। मझदूरों का खून चूसने की पद्धति ही छोड़ दें, तो आपको कोई परेशान नहीं करेगा। अरे, भयानक कलियुग में भी कोई आपको परेशान करनेवाला नहीं मिलेगा!!! घर में भी तेजी-मंदी आती है। मंदी में पत्नी पर रौब जमाते फिरे यह संसार क्षणभर के लिए भी बिना न्याय के नहीं रहता, अन्याय सह ही नहीं सकता। प्रत्येक क्षण न्याय ही हो रहा है। जो अन्याय किया है वह भी न्याय ही हो रहा है! प्रश्नकर्ता : धंधे में भारी घाटा हुआ है तो क्या करूँ? धंधा बंद कर दूं कि दूसरा धंधा करूँ? कर्ज बहुत चढ़ गया है। दादाश्री : रुई बाजार का घाटा कुछ बनिये की दुकान निकालने से पूरा नहीं होता। धंधे में हुआ घाटा धंधे से ही पूरा होगा, नौकरी से भरपाई नहीं होगा। 'कान्ट्रैक्ट' का घाटा कहीं पान की दुकान से भरपाई होगा? जिस बाजार में घाव हुआ है, उसी बाजार में वह घाव भरेगा, वहीं उसकी दवाई होगी। हम ऐसा भाव रखें कि हमारे से किसी जीव को किंचित्मात्र भी दुःख नहीं हो। सारा कर्ज चुकता हो जाये ऐसा स्पष्ट भाव रखें। लक्ष्मी तो ग्यारहवाँ प्राण है। इसलिए किसी की लक्ष्मी हमारे पास नहीं रहनी चाहिए। हमारी लक्ष्मी किसी के पास रहे उसमें हर्ज नहीं। पर निरंतर यही ध्येय रहना चाहिए कि मुझे पाई-पाई चुकता कर देनी है। ध्येय लक्ष में रखकर आप सारे खेल खेलें। मगर खिलाड़ी मत हो जायें। खिलाड़ी हुए कि आप खतम! प्रश्नकर्ता : मनुष्य कि नीयत किस कारण खराब होती है? दादाश्री : उसका खराब होनेवाला हो तब उसे फोर्स (विचार) आये कि 'तू ऐसे मुड़ जा न, फिर देखा जायेगा।' उसका बिगड़नेवाला है इसलिए 'कमिंग इवेन्टस कास्ट धेर शेडोझ बिफोर (जो होनेवाला है उसकी परछाँई पहले पड़ेगी)।' प्रश्नकर्ता : पर क्या वह उसे रोक पाये?

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