Book Title: Paiso Ka Vyvahaar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 17
________________ पैसों का व्यवहार २१ पैसों का व्यवहार हैं। तेरे हरेक ड्राफ्ट आदि सभी ही टाइम पर आ जायेंगे, पर मेरी इच्छा मत करना। क्योंकि कानूनन हो, उसे ब्याज समेत भेज देते हैं। जो इच्छा नहीं करता उसे समय पर भेजते हैं।' दूसरा, लक्ष्मीजी क्या कहती है? तुझे मोक्ष में जाना हो तो हक़ की लक्ष्मी मिले वही लेना, किसी का भी ऐंठकर, छल कर, मत लेना। लक्ष्मीजी जब हमें (दादाजी को) मिलती हैं, तब हम उन्हें कह देते हैं कि बडौदा में 'मामा की पोल' (मुहल्ला) और छटवाँ घर, जब अनुकूलता हो तब पधारना और जब जाना हो चली जाना। आपका ही घर है, पधारना। इतना हम कहें। हम विनय नहीं चूकते। दूसरी बात, लक्ष्मीजी को दुत्कारना नहीं चाहिए। कई ऐसा कहते हैं कि, 'हमको नहीं चाहिए, लक्ष्मीजी को तो हम टच (छूना) भी नहीं करते', वे लक्ष्मीजी को नहीं छुए उसमें हर्ज नहीं। पर ऐसा जो वाणी से बोलते हैं न, ऐसा जो भाव करते हैं वह जोखिम है। अगले कई जन्मों तक लक्ष्मीजी के बगैर भटकना पड़े। लक्ष्मीजी तो 'वीतराग' है, 'अचेतन वस्तु है'। खुद उसे दुत्कारना नहीं चाहिए। किसी को भी दुत्कार कर, चाहे वह चेतन हो कि अचेतन हो, फिर उसका संयोग प्राप्त नहीं होगा। हम 'अपरिग्रही' हैं ऐसा बोले मगर 'लक्ष्मीजी को कभी भी नहीं छऊँगा' ऐसा नहीं बोलते। लक्ष्मीजी तो सारी दुनिया के व्यवहार की 'नाक' कहलाये। 'व्यवस्थित' के नियम के आधार पर सभी देव-देवियाँ प्रस्थापित हैं, इसलिए कभी भी दुत्कार नहीं सकते। लक्ष्मी का त्याग नहीं करना है, पर अज्ञानता का त्याग करना है। कुछ लोग लक्ष्मी का तिरस्कार करते हैं। यदि किसी भी वस्तु का तिरस्कार करें तो वह कभी भी फिर मिलेगी ही नहीं, केवल निःस्पृह होना वह तो बहुत बड़ा पागलपन है। संसारी भावों में हम निःस्पृही हैं और आत्मा के भावों में सस्पृही हैं। सस्पृही-नि:स्पृही होगा तभी मोक्ष में जा पायेगा। इसलिए हर प्रसंग का स्वागत करना। काला धन कैसा कहलाये यह समझाता हूँ। बाढ़ का पानी हमारे घर में घुस जाये तो क्या हमें खुशी होगी कि घर बैठे पानी आया? फिर जब वह बाढ़ उतरेगी और पानी चला जाये, तब जो कीचड रह जायेगा उसे धोकर निकालते निकालते तो दम निकल जायेगा। यह काला धन बाढ़ के पानी के समान है। वह रोम-रोम काटकर जायेगा। इसलिए मुझे सेठों को कहना पड़ा कि संभलकर चलना। जहाँ तक उलटा धंधा शुरू नहीं होता वहाँ तक लक्ष्मीजी जायेंगी नहीं। उलटा धंधा लक्ष्मी के जाने का निमित्त है! यह काल कैसा है? अभी इस काल के लोगों को तो कहाँ से माल मिल जाये, दूसरों से कैसे झपट लूँ, किस तरह मिलावटवाला माल दूसरों को देना, बिना हक़ के विषय भोगना, उसमें से फुरसत मिले तो अन्य वस्तु की खोज करेंगे न? इससे सुख में कोई वृद्धि नहीं हुई है। सुख तो कब कहलाये? 'मेन प्रोडक्शन' करें तब। यह संसार तो 'बाय प्रोडक्ट' है, पूर्व में कुछ किया होगा उससे देह मिली, भौतिक चीजें मिली, स्त्री मिलें, बंगले मिले। यदि मेहनत से मिलता हो तो मजदूर को भी मिले, पर ऐसा नहीं है। आज के लोगों की समझ में फर्क हुआ है। इसलिए यह बाय-प्रोडक्शन के कारखाने निकाले हैं। लेकिन बाय-प्रोडक्शन के नहीं निकालने चाहिए। मेन प्रोडक्शन, माने मोक्ष का साधन, 'ज्ञानी पुरुष' से प्राप्त कर लें, फिर संसार का बाय-प्रोडक्शन तो अपने आप मुफ्त में ही मिलेगा! बाय-प्रोडक्ट के लिए तो अनंत अवतार बिगाड़े, दुर्ध्यान करके! एक बार मोक्ष प्राप्त कर लो तो सारा फसाद समाप्त हो जाये ! इस भौतिक सुख के बजाय अलौकिक सुख होना चाहिए कि जिस सुख से हमें तृप्ति हो। यह लौकिक सुख तो उलटे बेचैनी बढाये! जिस दिन पचास हजार की बिक्री हो उस दिन गिन-गिनकर ही सारा दिमाग खतम हो जाये। दिमाग तो इतना व्याकुल हो गया हो कि खाना-पीना भी अच्छा नहीं लगे। क्योंकि मेरे भी बिक्री आती थी, वह मैंने देखी थी, तब यह दिमाग कैसा हो जाता था! यह कुछ भी मेरे अनुभव से बाहर नहीं है न? मैं तो यह समंदर तैर कर बाहर निकला हूँ, इसलिए मुझे सब मालूम

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