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पैसों का व्यवहार
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पैसों का व्यवहार
(मदद) की होगी तब लक्ष्मी हमारे यहाँ आयेगी! वरना लक्ष्मी नहीं आती। लक्ष्मी तो देने की इच्छावाले के यहाँ ही आती है। जो नुकसान उठाता है, (जान-बूझकर) ठगाता है, नोबिलिटी रखे, वहाँ लक्ष्मी होगी। कभी चली गई है ऐसा लगे, मगर फिर वहीं आकर खडी रहेगी।
पैसे कमाने के लिए पुण्य की आवश्यकता है। बुद्धि से तो उलटे, पाप बँधते हैं। बुद्धि से पैसे कमाने जाये तो पाप बँधेगा। मेरे पास बुद्धि नहीं है इसलिए पाप नहीं बंधता। हमारे में (दादाजी के पास) एक परसेन्ट बुद्धि नहीं है।
मेरा स्वभाव दयालु, भाव प्रधान ! उगाही करने गया होऊँ तो भी देकर आऊँ! वैसे उगाही करने तो जाता ही नहीं कभी। उगाही करने गया होऊँ कभी और उसे कोई तंगी हो तो उलटे देकर आऊँ! मेरी जेब में कल को खर्च करने के जो हो, वह भी देकर आऊँ। फिर दूसरे दिन खर्च की समस्या हो! ऐसे मेरा जीवन व्यतीत हुआ है।
प्रश्नकर्ता : अधिक पैसा होने पर मोह होगा न! अधिक पैसे हो तो शराब के समान ही है न?
दादाश्री : हर एक का नशा है। यदि नशा नहीं होता हो, तो पैसे अधिक हो तो हर्ज नहीं। पर नशा हुआ इसलिए शराबी हुआ, फिर उसी खुमारी में भटका करे लोग! लोगों को तिरस्कार करे, यह गरीब है, ऐसा है। आया बड़ा धन्नासेठ, लोगों को गरीब कहनेवाला! खुद धन्नासेठ ! गरीबी कब आयेगी मनुष्य को यह कह नहीं सकते। आप कहते हैं ऐसा ही, सारा (खूब) नशा चढ़ जाये।
सारी जिन्दगी संसार के लोग पैसों के पीछे लगे रहते हैं। और पैसों से तृप्त हुआ हो ऐसा मनुष्य मैंने कहीं नहीं देखा। तो गया कहाँ यह सब?
अर्थात यह सब ऐसे गप ही चलता है। धर्म के नाम पर एक अक्षर भी समझते नहीं और सब चलता है। इसलिए मुसीबत आने पर क्या करना इसकी समझ नहीं है। डॉलर (पैसा)आने लगे तब उछलकुद करने लगे। पर फिर मुसीबत आने पर निपटारा कैसे करना यह नहीं आता इसलिए
निरे पाप ही बाँधे। उस समय पाप नहीं बँधे और वक्त गजर जाये, उसी का नाम धर्म, ऐसा समझना।
अर्थात् हमेशा ही सूर्योदय और सूर्यास्त होगा, ऐसा संसार का नियम है। इससे कर्म के उदय से पैसे बढ़ते ही जायें, अपने आप। हर ओर से, गाडियाँ-बाडियाँ, मकान बढ़ते रहें। सब बढ़ता रहें। पर जब चेन्ज (परिवर्तन) आये, फिर बिखरता रहे। पहले जमा होता रहे फिर बिखरता रहे। बिखरते समय शांति रखना, यही सब से बड़ा पुरूषार्थ!
सगा भाई पचास हजार डॉलर नहीं लौटाये, फिर वहाँ जीवन कैसे जीयें, यह पुरुषार्थ है। सगा भाई पचास हजार डॉलर नहीं लौटाता और ऊपर से गालियाँ देता हो, वहाँ जीवन कैसे जीना, यह पुरूषार्थ है।
और कोई नौकर आफिस में से दस हजार का माल चुरा गया, वहाँ कैसे बरतना यह पुरूषार्थ है। वरना ऐसे समय में नासमझी से सारा अवतार बिगाड़ दे।
प्रश्नकर्ता : आप्तवाणी में कहा गया है कि, तू यदि किसी को हजार-दो हजार देता है वह क्यों देता है, यानी तू अपने अहंकार और मान के खातिर देता है।
दादाश्री : मान बेचा उसने। अहंकार' बेचा तो हमें ले लेना चाहिए। खरीद लेना चाहिए। मैं तो सारी जिंदगी खरीदता आया हूँ। यानी 'अहंकार' खरीदना।
प्रश्नकर्ता : अर्थात् क्या दादा?
दादाश्री : आपके पास पाँच हजार लेने आया, उसकी आँख में क्या शरमिंदगी नहीं होगी?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : वह माँगे तब शरम छोडकर, 'अहंकार' बेचता है हमें। तो हमारे पास पूँजी हो तो हम खरीद लें।