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पैसों का व्यवहार
पैसों का व्यवहार
दादाश्री : इसके बाद भी पूर्ण संतोष होता नहीं न! मानो पच्चीस लाख इकट्ठे करूँ, पचास लाख इकट्ठे करूँ, ऐसा रहा करता है न?!
ऐसा है, पच्चीस लाख इकट्ठे करने में तो मैं भी पड़ता मगर मैंने हिसाब निकालकर देखा कि यहाँ आयुष्य का ऐक्सटेन्शन मिलता नहीं है। सौ के बजाय हजार साल जीने का होता तो मानो ठीक था कि मेहनत की वह काम की। यह तो आयुष्य का कोई ठिकाना नहीं है।
एक स्वसत्ता है, दूसरी परसत्ता। स्वसत्ता कि जिस में स्वयं परमात्मा हो सकता है। जब कि पैसे कमाने की सत्ता आपके हाथ में नहीं, वह परसत्ता है, तब पैसे कमाना अच्छा कि परमात्मा होना अच्छा? पैसे कौन देता है यह मैं जानता हूँ। पैसे कमाने की सत्ता खुद के हाथों में होने पर झगड़ा करके भी कहीं से लेकर आये, पर वह परसत्ता है। इसलिए चाहे सो कीजिए तब भी कुछ होनेवाला नहीं है। एक आदमी ने पूछा कि लक्ष्मी किसके जैसी है? तब मैंने कहा कि नींद के जैसी। किसी को सोते ही तुरन्त नींद आ जाती है और किसी को सारी रात करवटें बदलते रहने पर भी नींद नहीं आती, और कई तो नींद लाने के लिए गोलियाँ खाते हैं। अर्थात् यह लक्ष्मी आपकी सत्ता की बात नहीं है, वह परसत्ता है। और हमें परसत्ता की चिंता करने की क्या जरूरत?
इसलिए हम आप से कहते हैं कि चाहे कितनी भी माथापच्ची (झंझट) करोगे तो भी पैसे मिले ऐसा नहीं है। वह 'इट हेपन्स' (हो रहा है) है। हाँ, और आप उसमें निमित्त हैं। कोर्ट में आना-जाना यह निमित्त है। आपके मुँह से वाणी निकलती है वह सब निमित्त है। इसलिए आप इस में बहुत ध्यान नहीं दें, अपने आप ध्यान दिया ही जायेगा और इसमें आपको हरकत हो, ऐसा नहीं है।
यह तो मन में ऐसा समझ बैठे हैं कि, मेरे नहीं होने पर चलेगा ही नहीं। ये कोर्ट बंद हो जायेगी ऐसा समझ बैठे हैं। मगर ऐसा कुछ नहीं है।
यह लक्ष्मी प्राप्त हो इसके लिए भी कितने ही कारण साथ में मिलें तब वह लक्ष्मी प्राप्त हो ऐसा है। किसी डाक्टर के फादर को यहाँ गले
में खखार सट (फँस) गया हो तब डाक्टर से कहें कि इतने बड़े-बड़े आपरेशन किये तो यह खखार निकाल दो न! तब कहेगा. 'नहीं। निकालँगा उससे पहले मर जायेंगे।' अर्थात् इसमें इतना भी चलेगा नहीं। 'एविडन्स' जमा हुए, सभी ! मैं ज्ञानी हुआ वह तो 'सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' के आधार पर। ये लोग करोडपति भी स्वयं नहीं हए। लेकिन मन में समझते हैं कि 'मैं हुआ', इतनी ही भ्रांति है। और ज्ञानी पुरुष को भ्रांति नहीं होती। जैसा हो वैसा कह दें कि, 'भाई ऐसा हुआ था। मैं सरत के स्टेशन पर बैठा था और ऐसा हो गया।' और वह (करोडपति) समझे कि मैं दो करोड कमाया! लेकिन यह सब आप लेकर आये हैं। यह तो मन में समझ बैठे हो कि, 'नहीं, मैं करता हूँ' उतना ही है। यह इगोइज्म है और वह इगोइज्म क्या करता है? (इस इगोइज्म के आधार पर) आप अगले (जन्म) अवतार की अपनी योजना बना रहे हो। ऐसे, अवतार के पीछे अवतार की योजना बनाता ही रहता है जीव, इसलिए उसके अवतार पर कभी रोक नहीं लगती। योजना बंद हो जाये तब उसकी मोक्ष में जाने की तैयारी होगी।
एक भी जीव ऐसा नहीं होगा कि जो सुख नहीं खोजता हो! और वह भी कायम का (स्थायी) सुख खोजता है। वह ऐसा समझता है कि लक्ष्मी में सुख है, लेकिन उसमें भी फिर अंदर जलन पैदा होती है। जलन होना और कायम का सुख प्राप्त होना वह किसी दिन हो ही नहीं सकता। दोनों विरोधाभास है, इसमें लक्ष्मीजी का कसूर नहीं। उनका अपना ही कसूर है।
संसार की सारी चीजें भले एक दिन अप्रिय हो जाये, पर आत्मा तो खुद का स्वरूप ही है, वहाँ दुःख ही नहीं होता। संसार में तो, पैसे देता हो, वह भी अप्रिय हो जाये। कहाँ रखना फिर (पैसे को), चिंता होने लगे।
अर्थात् पैसे होने पर भी दुःख, नहीं होने पर भी दुःख, बड़े मंत्री भी हुए तब भी दु:ख, गरीब हो तब भी दुःख। भिखारी होने पर भी दुःख, विधवा को दुःख, सधवा को दुःख और सात मर्दवाली को दुःख। दुःख,