Book Title: Paiso Ka Vyvahaar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 13
________________ पैसों का व्यवहार पैसों का व्यवहार दो जगह पर उपयोग किस तरह रहेगा? एक ही जगह पर उपयोग रहेगा। इसका अब क्या करें? एक सेठजी मिले थे। वैसे लखपति थे, मुझसे पंद्रह साल बड़े, पर मेरे साथ उठते-बैठते। उस सेठजी से मैंने एक दिन पूछा कि, 'सेठजी, ये लडके सभी कोट-पतलन पहनकर घूमते हैं और आप एक इतनीसी धोती, वह भी दोनों घुटने खुली दिखे ऐसा क्यों पहनते हो?' वह सेठजी मंदिर दर्शन करने जाते हों तब ऐसे नंगे दिखे। इतनी-सी-धोती वह लंगोटी पहनी हो ऐसा लगे। इतनी-सी-बंडी और सफेद टोपी, और दर्शन करने दौड-धुप करते जाये। मैंने कहा कि, 'मुझे लगता है कि यह सब साथ लेकर जाओगे? तब मुझसे कहे कि,' नहीं ले जा सकते अंबालालभाई, साथ में नहीं ले जा सकते!' मैंने कहा, 'आप तो अक्लमंद, हम पाटीदारो में समझ कहाँ और आपकी तो अक्लमंद कोम, कुछ ढूंढ निकाला होगा!' तो कहने लगे कि, 'कोई नहीं ले जा सकता।' फिर उनके लड़के से पूछा कि, 'पिताजी तो ऐसा कहते थे', तब वह कहता है कि, 'वह तो अच्छा है कि साथ नहीं ले जा सकते। यदि साथ ले जा सकते तो मेरे पिताजी तीन लाख का कर्ज हमारे सर छोड़कर जाये ऐसे हैं ! मेरे पिताजी तो बहुत पक्के हैं। इसलिए नहीं ले जा सकते, यही अच्छा है, वरना पिताजी तो तीन लाख का कर्ज छोडकर हमें कहीं का नहीं रखते। मेरे तो कोट-पतलून भी पहनने को नहीं रहते। यदि साथ ले जा सकते न तो हमारा तो काम तमाम कर दें, ऐसे पक्के हैं!' प्रश्नकर्ता : ये लोग पैसों के पीछे पड़े हैं तो संतोष क्यों नहीं रखते? दादाश्री : हमसे कोई कहे कि संतोष रखना तब हम कहें कि भाई, आप क्यों नहीं रखते, यह मुझे बताओगे? वस्तुस्थिति में संतोष रखा जा सके ऐसा नहीं है। उसमें भी किसी के कहने पर रहे ऐसा नहीं है। जितना ज्ञान होगा उस मात्रा में अपने आप स्वाभाविक रूप से संतोष रहेगा ही। संतोष यह करने जैसी चीज़ नहीं है, वह तो परिणाम है। जैसा आपने इम्तहान दी होगा वैसा परिणाम आयेगा। इस प्रकार जितना ज्ञान होगा उसके परिणाम रूप उतना संतोष रहेगा। संतोष रहे इसलिए तो ये लोग इतना सारा परिश्रम करते हैं! देखो न, संडास में भी दो कार्य करते हैं. वही बैठे दाढी भी करे! इतना सारा लोभ होता है ! यह तो सब इन्डियन पझल कहलाये! कई वकील तो संडास में बैठकर दाढी बनाते हैं और एक की पत्नी मुझे कहती थी कि हमारे साथ बात करने तक की फुरसत नहीं है। तब वे कैसे एकांतिक हो गये? एक ही तरफा, एक ही कोना और फिर वह रेसकोर्स (घोडदौड़) होती है न? यहाँ लक्ष्मी कमायें और वहाँ जाकर फेंक आये। लीजिए! यहाँ गाय को दुहकर वहाँ गधे को पिला दे। इस कलियुग में पैसों का लोभ करके खुद का अवतार (जन्म) बिगाड़ते हैं और मनुष्यपन में रौद्रध्यान-आर्तध्यान होते रहते हैं, इससे मनुष्यपन जाता रहे। बड़े बड़े राज भोगकर आये हैं। ये कुछ भिखमंगे नहीं थे, लेकिन अभी मन भिखमंगे जैसा हो गया है। इसलिए यह चाहिए और वह चाहिए होता रहता है। वरना जिसका मन संतुष्ट हो उसे कुछ भी नहीं देने पर भी राजश्री होते हैं। पैसा ऐसी चीज़ है कि मनुष्य को लोभ के प्रति दृष्टि कराता है। लक्ष्मी तो बैर बढानेवाली चीज़ है। उससे जितना दूर रह सकें उतना उत्तम और (लक्ष्मी) खर्च होने पर अच्छे कार्य में खर्च हो जाये तो अच्छी बात है। पैसे तो जितने आनेवाले होंगे उतने ही आयेंगे। धर्म में पड़ेंगे तब भी उतने आयेंगे और अधर्म में पड़ेंगे तब भी उतने ही आयेंगे। लेकिन प्रश्नकर्ता : मुम्बई के सेठ दो नंबरी पैसे इकट्ठे करते हैं उसकी क्या 'इफेक्ट' होगी? दादाश्री : उससे कर्म का बंध पड़े। वह तो दो नंबरी या एक नंबरी हो, खरे-खोटे पैसे सभी कर्म के बंध डाले। कर्मबंध तो वैसे भी पड़े। जहाँ तक आत्मज्ञान नहीं होता वहाँ तक कर्मबंध पड़ता है। और कुछ पूछना है? दो नंबरी पैसों से खराब बंध पड़े। इससे जानवर गति में जाना पड़े, पशुयोनि में जाना पड़े।

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