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पाहुड-दोहा ३. पाहुढदोहा का विषय र शैली प्रत्तुत ग्रंय के कती भारतवर्ष के उन कवियों में से एक थे जिन्होंने समय समय पर भौतिक नावों में भूले हुए पुरुषों को एक उच्चतर सुख का मार्ग बताने, त्या धर्म के नाम पर सारहीन क्रिया कापड व अन्धविकास में हवे हुए व्यक्तियों का उद्धार करने का प्रयत्न किया है और आर्य-सन्यता पर आध्यात्मिकता की एक गहरी छाप लगा दी है। जैनियों के तीयंकरों ने खास तौर से उपभोग की अपेक्षा त्याग और कर्मकांड की अपेक्षा स्वानुभव के थेट माहात्म्य को चरितार्थ किया है। ऐसे ही उपनिषदों के स्त्रपिता के ऋषि थे जिन्होंने जोरदार आवाज में यह घोषणा
१२ संदेव भूतेष्ट गृटोमा न प्रकाशने । दृश्यते त्वया बुधा सूमया सूक्ष्मदर्शिभिः ।। अशरीरं शरीरेन्चनवस्थेववस्थितन् । महान विशुमामान मचा धीरो न शोचति ।। पदा संरे प्रनिधन्ते हदयस्येह यय:। पर मोजती भवत्येतावद्वयनुशासनम् ।।
गत दो अदाई हजार की में से आचार्य और साधु नुनि होते आये हैं जिन्होंने भिन्न भिन्न समय पर, अलग अलग रूप में, नई नई भताओं द्वारा, पृथक पृथक् समाज में, इसी संदेश की