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पयनन्दि-पञ्चविंशतिः 263) ये मूर्खा भुवि ते ऽपि दुःखहतये व्यापारमातन्वते
सा मांभूदथवा स्वकर्मवशतस्तस्मान्न ते तादृशाः। मूर्खान् मूर्खशिरोमणीन् ननु वयं तानेव मन्यामहे
ये कुर्वन्ति शुचं मृते सति निजे पापाय दुःखाय च ॥ ११ ॥ 264) किं जानासि न किं शृणोषि न न किं प्रत्यक्षमेवेक्षसे
निःशेषं जगदिन्द्रजालसदृशं रम्भेव सारोज्झितम् । किं शोकं कुरुषे ऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे तत्किंचित्कुरु येन नित्यपरमानन्दास्पदं गच्छसि ॥ १२ ॥
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तत् अवसानं विनाशः । तदा तस्मिन्समये । जायते उत्पद्यते । तदेतद्धवं निश्चितम् । ज्ञात्वा । प्रियेऽपि मृते। शोकम् । मुच त्यज । आदरात् सुखदं धर्म कुरुष्व । भो भव्याः । सपै । दूरम् उपागते सति । तस्य सर्पस्य । घृष्टिः लीहा । आहन्यते यष्टिभिः पीब्यते । इति किम् । इति मूर्खत्वम् ॥१०॥ भुवि भूमण्डले । ते अपि मूर्खाः। ये शठाः दुःखहतये दुःखविनाशाय । व्यापारम् आतन्वते विस्तारयन्ति । तस्मात्वकर्मवशतः । सा दुःखहतिः। मा अभूत् । अथवा ते मूर्खाः तादृशाः। ननु इति वितर्के । वयं तान् एव मूर्खान् मूर्खशिरोमणीन् मन्यामहे ये शुचं शोकं कुर्वन्ति । क सति । निजे इष्टे । मृते सति । तत् शोकं पापाय। च पुनः । दुःखाय भवति ॥ ११॥ भो मानुषपशो। निःशेषं जगत् इन्द्रजालसदृशम् । रम्भा इव कदलीगर्भवत् । सारोज्झितम् । किं न जानासि । किं न शृणोषि । प्रत्यक्षं कि न ईक्षसे । अत्र संसारे । निजे इष्टे । लोकान्तरस्थे मृते सति ।
तब उसकी रेखाको कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष लाठी आदिके द्वारा ताड़न करता है ? अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् वैसा नहीं करता है ॥१०॥ इस पृथिवीपर जो मूर्ख जन हैं वे भी दुःखको नष्ट करनेके लिये प्रयत्न करते हैं। फिर यदि अपने कर्मके प्रभावसे वह दुःखका विनाश न भी हो तो भी वे वैसे मूर्ख नहीं हैं । हम तो उन्हीं मूखौंको मूखों में श्रेष्ठ अर्थात् अतिशय मूर्ख मानते हैं जो किसी इष्ट जनका मरण होनेपर पाप और दुःखके निमित्तभूत शोकको करते हैं । विशेषार्थ- लोकमें जो प्राणी मूर्ख समझे जाते हैं वे भी दुःखको दूर करनेका प्रयत्न करते हैं । यदि कदाचित् दैववशात् उन्हें अपने इस प्रयत्नमें सफलता न भी मिले तो मी उन्हें इतना अधिक जड़ नहीं समझा जाता । किन्तु जो पुरुष किसी इष्ट जनका वियोग हो जानेपर शोक करते हैं उन्हें मूर्ख ही नहीं बल्कि मूर्खशिरोमणि ( अतिशय जड़) समझा जाता है । कारण यह कि मूर्ख समझे जानेवाले वे प्राणी तो आये हुए दुःखको दूर करनेके लिये ही कुछ न कुछ प्रयत्न करते हैं, किन्तु ये मूर्खशिरोमणि इष्टवियोगमें शोकाकुल होकर और नवीन दुःखको भी उत्पन्न करनेका प्रयत्न करते हैं । इसका भी कारण यह है कि उस शोकसे "दुःख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य" इस सूत्र (त. सू. ६-११) के अनुसार असातावेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है, जिससे कि भविष्यमें भी उन्हें उस दुःखकी प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है ॥ ११॥ हे अज्ञानी मनुष्य ! यह समस्त जगत् इन्द्रजालके सदृश विनश्वर और केलेके स्तम्भके समान निस्सार है; इस बातको तुम क्या नहीं जानते हो, क्या आगममें नहीं सुनते हो, और क्या प्रत्यक्षमें ही नहीं देखते हो! अर्थात् अवश्य ही तुम इसे जानते हो, सुनते हो और प्रत्यक्षमें भी देखते हो। फिर भला यहां अपने किसी सम्बन्धी जनके मरणको प्राप्त होनेपर क्यों शोक करते हो ? अर्थात् शोकको छोड़कर ऐसा कुछ प्रयत्न करो जिससे कि शाश्वतिक उत्तम सुखके स्थानभूत मोक्षको प्राप्त हो सको ॥१२॥
१वभूमण्डले. अपि।