Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 321
________________ -877 :२१-१२] २१. क्रियाकाण्डचूलिका २४७ 874 ) धन्यो ऽस्मि पुण्यनिलयो ऽस्मि निराकुलो ऽस्मि शान्तो ऽस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव । श्रीमजिनेन्द्र भवतो ऽत्रियुगं शरण्यं प्राप्तो ऽस्मि चेदहमतीन्द्रियसौख्यकारि ॥९॥ 875 ) रत्नत्रये तपसि पङ्क्तिविधे च धर्मे मूलोत्तरेषु च गुणेष्वथ गुप्तिकार्ये । दर्पात्प्रमादत उतागसि मे प्रवृत्ते मिथ्यास्तु नाथ जिनदेव तव प्रसादात् ॥ १०॥ 876 ) मनोवचो ऽङ्गैः कृतमङ्गिपीडनं प्रमोदितं कारितमत्र यन्मया। प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ॥ ११ ॥ 877 ) चिन्तादुष्परिणामसंततिवशादुन्मार्गगाया गिरः कायात्संवृतिवर्जितादनुचितं कर्मार्जितं यन्मया । किमपि अप्राप्तं न अस्ति । सर्व प्राप्तं दर्शनादि विना ॥ ८ ॥ भो देव । भो श्रीमजिनेन्द्र । चेत् अहम् । भवतः तवे । अङ्गियुगं शरण्य प्राप्तोऽस्मि तदा अहं धन्योऽस्मि । अहं पुण्यनिलयोऽस्मि । तदा अहं निराकुलोऽस्मि । अहं शान्तोऽस्मि । अहं नष्टविपदस्मि आपदरहितोऽस्मि । अहं विदस्मि विद्वान् अस्मि । भो देव । चेत्तव चरणशरणं प्राप्तोऽस्मि । किंलक्षणं चरणशरणम् । अतीन्द्रियसौख्यकारि ॥ ९॥ भो नाथ। भो देव । रत्नत्रये मार्गे । दर्पात् । उत अहो । प्रमादतः । आगसि अहंकारे । अथ दोषे । अथ अपराधे। मे मम प्रवृत्ते सति । तव प्रसादात् । सर्व दोष [सर्वो दोषः ] मिथ्या अस्तु । तपसि । च पुनः । पतिविधे' व्रते धर्मे । अथ मूलोत्तरेषु गुणेषु । अथ गुप्तिकार्ये प्रमादात्प्रवृत्ते सति । सर्व मिथ्या अस्तु वृथा अस्तु ॥ १० ॥ भो जिन । मया प्रमादतः। अत्र लोके। दर्पतः यत् मनोवचोऽङ्गैः अङ्गिपीडनं पापं कृतम् । अन्येषां कारितम्। प्रमोदितम् । मम। एतदाश्रयं मनोवचनकायैः आश्रितम् । दुष्कृतं तत्पापम् । मिथ्या वृथा । अस्तु भवतु ॥ ११॥ भो प्रभो । भो जिनपते। मया जीवेन । । गिरः वचनात् । कायात् । यत् अनुचितम् अयोग्यम् । कर्म अर्जितम् उपार्जितम् । किंलक्षणाया इससे अधिक मैं आपसेऔर कुछ नहीं मागता हूं; क्योंकि, तीनों लोकोंमें अभी तक जो प्राप्त न हुआ हो, ऐसा अन्य कुछ भी नहीं है ॥ विशेषार्थ- यहां भगवान् जिनेन्द्रसे केवल एक यही याचना की गई है कि आपके प्रसादसे मेरी दुष्ट वृत्ति नष्ट होकर मुझे रत्नत्रयकी प्राप्ति होवे, इसके अतिरिक्त और दूसरी कुछ भी याचना नहीं की गई है। इसका कारण यह दिया गया है कि अनन्त कालसे इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए प्राणीने इन्द्र व चक्रवर्ती आदिके पद तो अनेक वार प्राप्त कर लिये, किन्तु रत्नत्रयकी प्राप्ति उसे अभी तक कभी नहीं हुई। इसीलिये उस अप्राप्तपूर्व रत्नत्रयकी ही यहां याचना की गई है । नीतिकार भी यही कहते हैं कि 'लोको ह्यभिनवप्रियः' अर्थात् जनसमुदाय नवीन नवीन वस्तुसे ही अनुराग किया करता है ॥८॥ हे श्रीमज्जिनेन्द्र देव ! चूंकि मैं अतीन्द्रिय सुख ( मोक्षसुख ) को करनेवाले आपके चरणयुगलकी शरणको प्राप्त कर चुका हूं; अत एव मैं धन्य हूं, पुण्यका स्थान हूं, आकुलतासे रहित हूं, शान्त हूं, विपत्तियोंसे रहित हूं, तथा ज्ञाता भी हूं ॥९॥ हे नाथ! हे जिन देव ! रत्नत्रय, तप, दस प्रकारका धर्म, मूलगुण, उत्तरगुण और गुप्तिरूप कार्य; इन सबके विषयमें अभिमानसे 'अथवा प्रमादसे मेरी सदोष प्रवृत्ति हुई हो वह आपके प्रसादसे मिथ्या होवे ॥ १० ॥ हे जिन ! प्रमादसे अथवा अभिमानसे जो मैंने यहां मन, वचन एवं शरीरके द्वारा प्राणियोंका पीड़न स्वयं किया है, दूसरोंसे कराया है, अथवा प्राणिपीड़न करते हुए जीवको देखकर हर्ष प्रगट किया है; उसके आश्रयसे होनेवाला मेरा वह पाप मिथ्या होवे ॥ ११ ॥ हे जिनेन्द्र प्रभो! चिन्ताके कारण उत्पन्न हुए अशुभ परिणामोंके वश होकर अर्थात् मनकी दुष्ट वृत्तिसे, कुमामें प्रवृत्त हुई वाणी अर्थात् सावद्य वचनके द्वारा, तथा संवरसे रहित शरीरके द्वारा जो मैंने अनुचित (पाप) कर्म उत्पन्न किया है १श तत् । २श'शरण्यं नास्ति। ३भ सर्वदोषं । ४श विधौ। ५भ प्रवर्ते,क प्रवर्तिते। ६क'सवै' नास्ति ।

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