Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 328
________________ २५४ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः [901 :२३-७काणों केष्णपदार्थसंनिधिवशाजाते मणौ स्फाटिके यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत् ॥ ७॥ 902 ) आपत्सापि यतेः परेण सह यः संगो भवेत्केनचित् सापत्सुष्ठ गरीयसी पुनरहो यः श्रीमतां संगमः । यस्तु श्रीमदमद्यपानविकलैरुत्तानितास्यैर्नृपः संपर्कः स मुमुक्षुचेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत् ॥ ८॥ 903) स्निग्धा मा मुनयो भवन्तु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजनं मा किंचिद्धनमस्तु मा वपुरिदं रुग्वर्जितं जायताम् । नग्नं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तत्रापि खेदो न मे नित्यानन्दपदप्रदं गुरुवचो जागर्ति चेञ्चेतसि ॥९॥ अहं न । विचित्रविलसत्कर्भकतायामपि। यद्यस्मात्कारणात् । स्फाटिके मणौ कृष्णपदार्थसनिधिवशात् काणे जीते सति । तस्मात् कृष्णपदार्थात् स मणिः पृथगेव भिन्नः । लोके संसारे । विकारः द्वयकृतः भवेत् ॥ ७॥ अहो इति संबोधने । यतेः मुनीश्वरस्य । परेण केनचित्सह यः संगः संयोगः भवेत् । सापि आपत् आपदा कष्टम् । पुनः यः श्रीमता द्रव्ययुक्तानाम् । संगमः सा सुष्ठ गरीयसी आपत् । तु पुनः । यः नृपैः सह । संपर्कः संयोगः । स राजसंयोगः मुमुक्षुचेतसि मुनिचेतसि । सदाकाले। मृत्योः मरणात् । अपि क्लेशकृत् । किंलक्षणैः नृपः । श्रीमदमद्यपानविकलैः । पुनः उत्तानितास्यैः ऊर्ध्वमुखैः। गर्वितैः ॥ ८ ॥ तसि गुरुवचः जागर्ति । किंलक्षणं गुरुवचः । नित्यानन्दपदप्रदम् । तदा मुनयः । स्निग्धाः स्नेह कारिणः मा भवन्तु । तदा गृहिणः श्रावकाः भोजनं मा यच्छन्तु । तदा धनं किंचित् मा अस्तु । तदा इदं वपुः शरीर रुग्वर्जितं मा जायताम् । मां नग्नम् अवलोक्य जनः निन्दतु । तत्र लौकिकदुःखे मे खेदः न दुःखं न ॥ ९ ॥ कालेपनके उत्पन्न होनेपर भी वह उस मणिसे पृथक ही होता है। कारण यह कि लोकमें जो भी विकार होता है वह दो पदार्थोंके निमित्तसे ही होता है | विशेषार्थ- यद्यपि स्फटिक मणिमें किसी दूसरे काले पदार्थके निमित्तसे कालिमा और जपापुष्पके संसर्गसे लालिमा अवश्य देखी जाती है, परन्तु वह वस्तुतः उसकी नहीं होती है । वह स्वभावसे निर्मल व धवलवर्ण ही रहता है। जब तक उसके पासमें किसी अन्य रंगकी वस्तु रहती है तभी तक उसमें दूसरा रंग देखने में आता है और उसके वहांसे हट जानेपर फिर स्फटिक मणि में वह विकृत रंग नहीं रहता है। ठीक इसी प्रकारसे आत्माके साथ ज्ञानावरणादि अनेक कर्मोंका संयोग रहनेपर ही उसमें अज्ञानता एवं राग-द्वेष आदि विकारभाव देखे जाते हैं। परन्तु वे वास्तवमें उसके नहीं हैं, वह तो स्वभावसे शुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूप ही है । वस्तुमें जो विकारभाव होता है वह किसी दूसरे पदार्थके निमित्तसे ही होता है । अत एव वह उसका नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, वह कुछ ही काल तक रहनेवाला है। जैसे- आगके संयोगसे जलमें होनेवाली उष्णता कुछ समय ( अग्निसंयोग ) तक ही रहती है, तत्पश्चात् शीतलता ही उसमें रहती है जो सदा रहनेवाली है ॥ ७ ॥ साधुका किसी पर वस्तुके साथ जो संयोग होता है वह भी उसके लिये आपत्तिस्वरूप प्रतीत होता है, फिर जो श्रीमानों (धनवानों) के साथ उसका समागम होता है वह तो उसके लिये अतिशय महान् आपत्तिस्वरूप होता है, इसके अतिरिक्त सम्पत्तिके अभिमानरूप मद्यपानसे विकल होकर ऊपर मुखको करनेवाले ऐसे राजा लोगोंके साथ जो संयोग होता है वह तो उस मोक्षाभिलापी साधुके मनमें निरन्तर मृत्युसे भी अधिक कष्टकारक होता है ॥ ८ ॥ यदि मेरे हृदयमें नित्य आनन्दपद अर्थात् मोक्षपदको देनेवाली गुरुकी वाणी जागती है तो मुनिजन स्नेह करनेवाले भले ही न हों, गृहस्थ जन यदि भोजन नहीं देते हैं तो न दें, मेरे पास कुछ भी धन न हो, यह शरीर रोगसे रहित न हो अर्थात् सरोग भी हो, तथा मुझे नग्न देखकर लोग निन्दा भी करे; तो भी मेरे १ क काणे च काय । २ श वशात् कृष्णत्वे जाते। ३ क तत्र लोके खेदः ।

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