Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 331
________________ २५७ -911:२३-१७] २३. परमार्थविंशतिः तश्चिन्तां म च सोऽपि संप्रति करोत्यात्मा प्रभुः शक्तिमान यत्किचिनवितात्र तेन च भवो ऽप्यालोक्यते नष्टवत् ॥ १४॥ 909) कर्मक्षत्युपशान्तिकारणवशात्सद्देशनाया गुरो रात्मैकत्व विशुद्धबोधनिलयो निःशेषसंगोज्झितः। शश्वत्तद्गतभावनाश्रितमना लोके वसन् संयमी नावद्येन स लिप्यते ऽनदलवत्तोयेन पद्माकरे ॥ १५ ॥ 910) गुर्वशिद्वयदत्तमुक्तिपदवीप्राप्त्यर्थनिर्ग्रन्थता. जातानन्दवशान्ममेन्द्रियसुखं दुःखं मनो मन्यते । सुस्वादुःप्रतिभासते किल खलस्तावत्समासादितो यावन्नो सितशर्करातिमधुरा संतर्पिणी लभ्यते ॥ १६ ॥ 911) निम्रन्थत्वमुदा ममोज्वलतरध्यानाश्रितस्फीतया दुर्ध्यानाक्षसुखं पुनः स्मृतिपथप्रस्थाय्यपि स्यात्कुतः। किंलक्षणः आत्मा प्रभुः । बलवता बोधादिना त्याजितः । तेन आत्मप्रभुणा । यत्किंचिद्भवितापि तद्भविष्यति । तत्किम् । भवः संसारः। नष्टवत् विलोक्यते ॥ १४॥ स संयमी । लोके वसन् तिष्ठन् । अवद्येन पापेन न लिप्यते । किंलक्षणः संयमी। कर्मक्षति-विनाश-उपशान्तिकारणवशात् । गुरोः सद्देशनायाः गुरूपदेशात् । आत्मैकत्व विशुद्धबोधनिलयः। पुनः निःशेषसंग-परिग्रहरहितः । पुनः किंलक्षणः संयमी। शश्वत्तद्गत-आत्मगत-भावनाश्रितमनाः । तत्र दृष्टान्तमाह । पद्माकरे सरोवरे । तोयेन जलेन । अब्जदलवत् कमलदलवत् ॥ १५॥ मम मनः इन्द्रियसुखं दुःखं मन्यते । कस्मात् । गुर्वविदयदत्तमुक्तिपदवीप्राप्त्यर्थनिर्ग्रन्थताजातानन्दवशात् । किल इति सत्ये । तावत्कालं खलः पिण्याकखण्डः लोके मिष्टः खलः । समासादितः प्राप्तः । सुस्वादुः प्रतिभासते । यावत्कालं सितशर्करा 'मिश्री' न लभ्यते । किंलक्षणा शर्करा । अतिमधुरा संतर्पिणी ॥ १६ ॥ निर्ग्रन्थत्वमुदा मरा हुआ समझता है और उसकी कुछ भी चिन्ता नहीं करता है। बल्कि तब वह अपने संसारको नष्ट हुआ-सा समझने लगता है । तात्पर्य यह कि एकत्वबुद्धिके उत्पन्न हो जानेपर जीवको इन्द्रियविषयों में अनुराग नहीं रहता है । उस समय वह इन्द्रियोंको नष्ट हुआ-सा मानकर मुक्तिको हाथमें आया ही समझता है ॥ १४ ॥ जो संयमी कर्मके क्षय अथवा उपशमके कारण वश तथा गुरुके सदुपदेशसे आत्माकी एकताविषयक निर्मल ज्ञानका स्थान बन गया है, जिसने समस्त परिग्रहका परित्याग कर दिया है, तथा जिसका मन निरन्तर आत्माकी एकताकी भावनाके आश्रित रहता है; वह संयभी पुरुष लोकमें रहता हुआ भी इस प्रेकार पापस लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि तालाबमें स्थित कमलपत्र पानीसे लिप्त नहीं होता है ॥ १५॥ गुरुके चरणयुगलके द्वारा मुक्ति पदवीको प्राप्त करनेके लिये जो निर्गन्थता (दिगम्बरत्व) दी गई है उसके निमित्तसे उत्पन्न हुए आनन्दके प्रभावसे मेरा मन इन्द्रियविषयजनित सुखको दुखरूप ही मानता है । ठीक है-प्राप्त हुआ खल (तेलके निकाल लेनेपर जो तिल आदिका भाग शेष रहता है) तब तक ही स्वादिष्ट प्रतीत होता है जब तक कि अतिशय मीठी सफेद शक्कर (मिश्री) तृप्तिको करनेवाली नहीं प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ अतिशय निर्मल ध्यानके आश्रयसे विस्तारको प्राप्त हुए निम्रन्थताजनित आनन्दके प्राप्त हो जानेपर खोटे १श नवतोऽपि । २मश खलिः । पप्रनं.३३

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