Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 233
________________ -520 : ९-६] १५९ ९. मालोचना 518 ) यः कश्चिनिपुणो जगत्रयगतानर्थानशेषांश्चिरं सारासारविवेचनैकमनसा मीमांसते निस्तुषम् । तस्य त्वं परमेक एव भगवन् सारो घसारं परं सर्व मे भवदाश्रितस्य महती तेनाभवन्निवृतिः॥४॥ 519 ) शानं दर्शनमप्यशेषविषयं सौख्यं तथात्यन्तिकं वीर्य च प्रभुता च निर्मलतरा रूपं स्वकीयं तव । सम्यग्योगदृशा जिनेश्वर चिरात्तेनोपलब्धे त्वयि शातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न कि योगिभिः ॥५॥ 520 ) त्वामेकं त्रिजगत्पतिं परमहं मन्ये जिनं स्वामिनं त्वामेकं प्रणमामि चेतसि दधे सेवे स्तुवे सर्वदा । त्वामेकं शरणं गतोऽस्मि बहुना प्रोक्तेन किंचिद्भवेदित्थं तद्भवतु प्रयोजनमतो नान्येन मे केनचित् ॥ ६ ॥ यः कश्चित् । निपुणः चतुरः । जगत्रयगतान प्राप्तान् अशेषान् अर्थान् । सारासारविवेचनैकमनसा कृत्वा । चिरं बहुकालम् । निस्तुषं परिपूर्णम् । मीमांसते विचारयति । तस्य विचारकपुरुषस्य । परमम् एकः' त्वमेव सारः प्रतिभासते से] । भो भगवन् । हि यतः । परं सर्वम् असार प्रतिभासते । तेन कारणेन भवदाश्रितस्य । मे मम । महती गरिष्ठा । निर्वृत्तिः सुखम् । अभवत् ॥ ४॥ भो जिनेश्वर । तव अशेषविषयं समस्तगोचरम् । ज्ञानं दर्शनम् अपि वर्तते तथा आत्यन्तिकं सौख्यम् । च पुनः। वीर्य वर्तते। भो जिनेश्वर । तव निर्मलतरा प्रभुता वर्तते। तव स्वकीयं रूपं वर्तते । भो जिनेश्वर । तेन सम्यग्योगशा सम्यग्योगनेत्रेण । चिरात् बहुकालेन । त्वयि उपलब्धे सति योगिभिः किं न ज्ञातम् । अथ किं न विलोकितम् । अथ योगिभिः किन प्राप्तम् । अपितु सर्व ज्ञातं सर्वे विलोकितं सर्व प्राप्तम् ॥ ५॥ अहं त्वाम् एकं त्रिजगत्पतिम् । परं श्रेष्ठम् । जिनं स्वामिन मन्ये । त्वाम् एकम् । सदा प्रणमामि । त्वाम् एकं चेतसि दधे धारयामि । भो जिनेश । त्वाम् एक सेवे। त्वामेकं सर्वदा स्तवे। त्वाम् एकं शरणं गतोऽस्मि प्राप्तोऽस्मि । बहुना प्रोक्तेन किम् । इत्थं किंचिद्भवेत् तद्भवतु । अतः कारणात् । मे मम । अन्येन कर सकता ॥ ३ ॥ हे भगवन् ! जो कोई चतुर पुरुष सार व असार पदार्थोंका विवेचन करनेवाले असाधारण मनके द्वारा निर्दोष रीतिसे तीनों लोकोंके समस्त पदार्थोंका बहुत काल तक विचार करता है उसके लिये केवल एक आप ही सारभूत तथा अन्य सब असारभूत हैं। इसीलिये आपकी शरणमें प्राप्त हुए मुझको महान् आनन्द प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ हे जिनेश्वर ! आपका ज्ञान और दर्शन समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला है, सुख और वीर्य आपका अनन्त है, तथा आपका प्रभुत्व अतिशय निर्मल है। इस प्रकारका आपका निज स्वरूप है । इसलिये जिन योगी जनोंने समीचीन ध्यानरूप नेत्रके द्वारा चिर कालमें आपको प्राप्त कर लिया है उन्होंने क्या नहीं जाना, क्या नहीं देखा, तथा क्या नहीं प्राप्त कर लिया ? अर्थात् एक मात्र आपके जान लेनेसे उन्होंने सब कुछ जान लिया, देख लिया और प्राप्त कर लिया है ॥ ५॥ मैं एक तुमको ही तीनों लोकोंका स्वामी, उत्कृष्ट, जिन और प्रभु मानता हूं । मैं एक तुमको ही सर्वदा नमस्कार करता हूं, तुमको ही चित्तमें धारण करता हूं, तुम्हारी ही सेवा करता हूं, तुम्हारी ही स्तुति करता हूं, तथा एक तुम्हारी ही शरणमें प्राप्त हुआ हूं। बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? इस प्रकारसे जो कुछ प्रयोजन सिद्ध हो सकता है वह होवे। मुझे आपके सिवाय अन्य किसीसे भी प्रयोजन नहीं है ॥ ६ ॥ १मश एक। २श निर्वृतिः अभवत् , म-प्रतौ तु घटितं आतं पत्रमत्र । ३ क 'किम्' नास्ति ।

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