Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 279
________________ -704:१३-२३] १३. ऋषभस्तोत्रम् २०५ 700) कम्मकलंकचउक्के णडे णिम्मलसमाहिभूईए। तुह णाणदप्पणे च्चिय लोयालोयं पडिप्फलियं ॥१९॥ 701) आवरणाईणि तए समूलमुम्मूलियाइ दट्टण । कम्मचउक्केण मुयं व णाह भीएण सेसेण ॥२०॥ 702 ) णाणामणिणिम्माणे देव ठिओ सहसि समवसरणम्मि । उरिं वै संणिविट्ठो जियाण जोईण सव्वाणं ॥ २१ ॥ 703) लोउत्तरा वि सा समवसरणसोहा जिणेस तुह पाए । लहिऊण लहइ महिमं रविणो णलिणि व्व कुसुमट्ठाड्डा] ॥२२॥ 704) णिहोसो अकलंको अजडो चंदो व्व सहसि तं तह वि। सीहासणायलत्थो जिणिंद कयकुवलयाणंदो॥ २३॥ भो अर्घ्य पूज्य । निर्मलसमाधिभूत्या कर्मकलङ्कचतुष्के नष्टे सति तव ज्ञानदर्पणे लोकालोकं प्रतिबिम्बितम् ॥ १९ ॥ भो नाथ | आवरणादीनि त्वया समूलम् उन्मूलितानि उत्पादितानि । भीतेन शेषेण अघातिकर्मचतुष्केन दृष्ट्रा स अघातिचतुष्कः मृतगवत् [तत् अघातिचतुष्कं मृतवत् ] त्वयि विषये स्थितम् ॥ २० ॥ भो देव । समवसरणे नानामणिनिर्माणे त्वं स्थितः शोभसे । किंलक्षणस्त्वम् । यावतां [ जितानां ] सर्वेषां योगिनाम् उपरि निविष्टः सन् विराजसे शोभसे ॥२१॥ भो जिनेश । सा समवसरणशोभा लोकोत्तरा अपि तव पादौ लब्ध्वा प्राप्य महिमानं लभते । यथ सूर्यस्य पादपान् [पादान् ] लब्ध्वा कमलिनी विराजते। किंलक्षणा कमलिनी । कुसुमस्था कुसुमेषु तिष्ठतीति कुसुमस्था ॥ २२ ॥ भो जिनेन्द्र । त्वं चन्द्रवत् शोभसे तथापि चन्द्रात् अधिकः । यतस्त्वं निर्दोषः । पुनः किंलक्षगः त्वम् । अकलङ्कः कलङ्करहितः । अजडः ज्ञानवान् । पुनः किंमानो हृदयमें स्थित ध्यानरूपी अग्निसे सहसा जलनेवाले शरीरका धुआं ही हो ॥ १८ ॥ हे भगवन् ! निर्मल ध्यानरूप सम्पदासे चार घातिया कर्मरूप कलंकके नष्ट होजानेपर प्रगट हुए आपके ज्ञान (केवलज्ञान) रूप दर्पणमें ही लोक और अलोक प्रतिबिम्बित होने लगे थे ॥ १९ ॥ हे नाथ ! उस समय ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोको समूल नष्ट हुए देखकर शेष ( वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ) चार अघातिया कर्म भयसे ही मानो मरे हुएके समान ( अनुभागसे क्षीण ) हो गये थे॥२०॥ हे देव! विविध प्रकारकी मणियोंसे निर्मित समवसरणमें स्थित आप जीते गये सब योगियोंके ऊपर बैठे हुएके समान सुशोभित होते हैं ॥ विशेषार्थभगवान् जिनेन्द्र समवसरणसभामें गन्धकुटीही भीतर स्वभावसे ही सर्वोपरि विराजमान रहते हैं । इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उन्होंने चूंकि अपनी आभ्यन्तर व बाह्य लक्ष्मीके द्वारा सब ही योगीजनोंको जीत लिया था, इसीलिये वे मानो उन सब योगियोंके ऊपर स्थित थे ॥ २१ ॥ हे जिनेश ! वह समवसरणकी शोभा यद्यपि अलौकिक थी, फिर भी वह आपके पादों ( चरणों) को प्राप्त करके ऐसी महिमाको प्राप्त हुई जैसी कि पुष्पोंसे व्याप्त कमलिनी सूर्यके पादों (किरणों) को प्राप्त करके महिमाको प्राप्त होती है ॥ २२ ॥ हे जिनेन्द्र ! सिंहासनरूप उदयाचलपर स्थित आप चूंकि चन्द्रमाके समान कुवलय (पृथिवीमण्डल, चन्द्रपक्षमें कुमुद ) को आनन्दित करते हैं; अत एव उस चन्द्रमाके समान सुशोभित होते हैं, तो भी आपमें उस चन्द्रमाकी अपेक्षा विशेषता है- कारण कि जिस प्रकार आप अज्ञानादि दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्दोष हैं उस प्रकार चन्द्रमा निर्दोष नहीं है- वह सदोष है, क्योंकि वह दोषा (रात्रि ) से सम्बन्ध रखता है। आप कर्ममलसे रहित होनेके कारण अकलंक हैं, परन्तु चन्द्रमा कलंक ( काला चिह्न ) से ही सहित है । तथा आप जडता ( अज्ञानता ) से रहित होनेके कारण अजड हैं । परन्तु चन्द्रमा अजड नहीं है, १क मू, म श मुख्। २ब सुहसि, श सोहसि। ३ क उवरिव, बश उवरि व। ४ च-प्रतिपाठोऽम् । अकश जिणंद । ५क मृगवत् । ६ क लक्षणस्त्वं सर्वेषां। ७श जिन ।

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