Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 302
________________ ઢ पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिः 811 ) नयप्रमाणादिविधानसद्वटं प्रकाशितं तत्त्वमतीव निर्मलम् । यतस्त्वया तत्सुमते ऽत्र तावकं तदन्वयं नाम नमोऽस्तु ते जिन ॥ ५ ॥ 812 ) रराज पद्मप्रभतीर्थकृत्सदस्यशेषलोकत्रयलोकमध्यगः । नभस्युडुवातयुतः शशी यथा वचो ऽमृतैर्वर्षति यः स पातु नः ॥ ६ ॥ 813 ) नरामराहीश्वरपीडने जयी धृतायुधो धीरमना झषध्वजः । [ 811: १६-५ विनापि शस्त्रैर्ननु येन निर्जितो जिनं सुपार्श्व प्रणमामि तं सदा ॥ ७ ॥ 814 ) शशिप्रभो वागमृतांशुभिः शशी परं कदाचिन्न कलङ्कसंगतः । न चापि दोषाकरतां ययौ यतिर्जयत्यसौ संसृतितापनाशनः ॥ ८ ॥ रहितः । हि यतः कारणात् । विश्वं समस्तम् । लघु स्तोकम् ॥ ४ ॥ भो सुमते भो जिन । त्वया यतः अतीव निर्मलं तत्त्वं प्रकाशितम् । किंलक्षणं तत्त्वम् । नयप्रमाणादिविधानसद्धटं नय प्रमाणादियुक्तम् । तत्तस्मात्कारणात् । अत्र जगति । तावकं नाम | तदन्वयं [ र्थतां ] यातम् । ते तुभ्यं नमोऽस्तु ॥ ५ ॥ पद्मप्रभतीर्थकृत् जिनः । सदसि समवसरणसभायाम् । अशेषलोकत्रय लोक मध्यगः मध्यवर्ती । रराज शुशुभे । यथा नभसि आकाशे । उडुत्रातयुतः तारागणयुक्तः । शशी चन्द्रः । रराज । यः पद्मप्रभः वचोऽमृतैः वर्षति स पद्मप्रभः नः अस्मान् पातु रक्षतु ॥ ६ ॥ तं सुपार्श्व जिनं सदा प्रणमामि । ननु इति वितर्के । येन सुपार्श्वेन । शस्त्रैर्विनापि । झषध्वजेः कामः । निर्जितः । किंलक्षणः कामः । नर- अमर - अहीश्वर इन्द्रधरणेन्द्रचक्रिणां पीडने । जयी जेता । पुनः किंलक्षणः कामः । धृतायुधः धीरमनाः ॥ ७ ॥ असौ शशिप्रभैः यतिः जयति । किंलक्षणः श्रीचन्द्रप्रभः । संसृतितैापनाशनः । यः चन्द्रप्रभः वाक् वचन - अमृत - अंशुभिः किरणैः । परं श्रेष्टम् । शशी यः चन्द्रः कदाचित् कलङ्क अभिनंदन जिनके लिये मैं मुक्तिके प्राप्त्यर्थ नमस्कार करता हूं ॥ ४ ॥ हे समुति जिनेन्द्र ! चूंकि आपने नय एवं प्रमाण आदिक विधिसे संगत तत्त्व ( वस्तु स्वरूप ) को अतिशय निर्दोष रीति से प्रकाशित किया था, एव आपका सुमति (सु शोभना मतिर्यस्यासौ सुमति:: (:- उत्तम बुद्धिवाला) यह नाम सार्थक है । हे जिन ! आपको नमस्कार हो || ५ || जिस प्रकार आकाशमें तारासमूहसे संयुक्त होकर चन्द्र शोभायमान होता है उसी प्रकार जो पद्मप्रभ तीर्थंकर समवसरणसभा में तीनों लोकोंके समस्त प्राणियों के मध्य में स्थित होकर शोभायमान हुआ तथा जिसने वहां वचनरूप अमृतकी वर्षा की थी वह पद्मप्रभ जिनेन्द्र हमारी रक्षा करे ॥ ६ ॥ जो साहसी मीनकेतु ( कामदेव ) शस्त्रको धारण करके चक्रवर्ती, इन्द्र और धरणेन्द्रको भी पीड़ित करके उनके ऊपर विजय प्राप्त करता है ऐसे उस कामदेव सुभटको भी जिसने विना शस्त्रके ही जीत लिया है उस सुपार्श्व जिनके लिये मैं सदा प्रणाम करता हूं ॥ विशेषार्थ — संसारमें कामदेव ( विषयवासना ) अत्यन्त प्रबल माना जाता है। दूसरोंकी तो बात ही क्या है, किन्तु इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आदि भी उसके वशमें देखे जाते हैं । ऐसे सुभट उस कामदेवके ऊपर वे ही विजय प्राप्त कर सकते हैं जिनके हृदयमें आत्म-परविवेक जागृत है । भगवान् सुपार्श्व ऐसे ही विवेकी महापुरुष थे । अत एव उन्हें उक्त कामदेवपर विजय प्राप्त करनेके लिये किसी शस्त्रादिकी भी आवश्यकता नहीं हुई। उन्होंने एक मात्र विवेकबुद्धिसे उसे पराजित कर दिया था । अत एव वे नमस्कार करनेके योग्य हैं ॥ ७ ॥ चन्द्रमाके समान प्रभावाले चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र यद्यपि वचनरूप अमृतकी किरणोंसे चन्द्रमा थे, परन्तु जैसे चन्द्रमा कलंक ( काला चिह्न) से सहित वैसे वे कलंक (पाप-मल ) से सहित कभी नहीं थे । तथा जैसे चन्द्रमा दोषाकर ( रात्रिको करनेवाला ) है वैसे वे दोषाकर ( दोषोंकी खानि ) नहीं थे अर्थात् वे अज्ञानादि सब दोषोंसे रहित थे । वे संसारके ३ च स पाप । ४ क प्रभुः । ५ श पाप १ क मखध्वजः । २ च प्रतिपाठोऽयम् । अकश प्रभुर्वागं । ६ श 'अमृत' नास्ति ।

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