Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 315
________________ १९. श्रीजिनपूजा कम् 852 ) देवोऽयमिन्द्रियबलप्रलयं करोति नैवेद्य मिन्द्रियबलप्रदखाद्यमेतत् । चित्रं तथापि पुरतः स्थितमर्हतो ऽस्य शोभां बिभर्ति जगतो नयनोत्सवाय ॥ ५ ॥ 853 ) आर्तिकं तरलवह्निशिखं विभाति स्वच्छे जिनस्य वपुषि प्रतिबिम्बितं सत् । नानलो मृगयमाण इवावशिष्टं दग्धुं परिभ्रमति कर्मचयं प्रचण्डः ॥ ६ ॥ 854 ) कस्तूरिकारसमयीरिव पत्रवल्लीः कुर्वन् मुखेषु चलनैरिह दिग्वधूनाम् । हर्षादिव प्रभुजिनाश्रयणेन वातप्रेङ्खदपुर्नटति पश्यत धूपधूमैः ॥ ७ ॥ 855) उच्चैः फलाय परमामृतसंज्ञकाय नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि । तद्भक्तिरेव सकलानि फलानि दत्ते मोहेन तत्तदपि याचत एव लोकः ॥ ८ ॥ - 855 : १९-८ -] २४१ यद्रयं वस्तु यत्र न विद्यते तद्वस्तु तत्र "योजितम् अधिकां लक्ष्मीं शोभां कुरुते ॥ ४ ॥ पुष्पम् । अयं देवः सर्वज्ञः । इन्द्रियबलेप्रलयं करोति । एतत् नैवेद्यं इन्द्रियबलप्रदखायम् इन्द्रियबलपोषकम् । चित्रम् आश्वर्यम् । तथापि अस्य अर्हतः सर्वज्ञस्य । पुरतः अग्रतः स्थितं शोभां बिभर्ति । कस्मे । जगतः नयनोत्सवाय आनन्दाय ॥ ५ ॥ नैवेद्यम् | आरार्तिकं दीपं[पः ] जिनस्य वपुषि शरीरे स्वच्छे प्रतिबिम्बितं सत् विद्यमानं विभाति । किंलक्षणं दीपम् [ आरार्तिकम् ] तरला चञ्चला वह्निशिखा यत्र तत् तरलवशिखम् । उत्प्रेक्षते । ध्यान-अनलः अग्निः परिभ्रमति इव । किं कर्तुम् इव । अवशिष्टम् उर्व[द्व]रितम् | कर्मचयं कर्मसमूहम् । दग्धुम् । मृगयमाणः अवलोक्यमान इव । किंलक्षणः ध्यानानलः । प्रचण्डः ॥ ६ ॥ दीपम् भो भव्याः । यूयं पश्यत । कम् । धूपधूमम् | जिनाश्रयणेन हर्षात् नटति नृत्यति इव । किंलक्षणं धूप[ ] । वातेन प्रेङ्खपुः कम्पमानशरीरम् । इह समये । दिग्वधूनां दिशास्त्रीणाम् । मुखे । चलनैः परिभ्रमणैः पत्रवल्लीः कुर्वन् इव । किंलक्षणा: पत्रवल्ली: । कस्तूरिकारसमयीः ॥ ७ ॥ धूपम् । अहं श्रावकः जिनपतिं नानाफलैः परिपूजयामि । कस्मै । उचैः फलाय परम - अमृतसंज्ञकाय मोक्षाय । तद्भक्तिः तस्य जिनस्य भक्तिः पुष्पशरों (पुष्पमालाओं से ) से पूजा करता हूं । अन्य हरि, हर और ब्रह्मा आदि चूंकि पुष्पशरसे सहित हैं; अत एव उनकी पुष्पशरोंसे पूजा करनेमें कुछ भी शोभा नहीं है । इसी बातको पुष्ट करनेके लिये यह भी कह दिया है कि जहांपर जो वस्तु नहीं है वहीं पर उस वस्तुके रखनेमें शोभा होती है, न कि जहां पर वह वस्तु विद्यमान है । तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्र भगवान् ही जगद्विजयी कामदेवसे रहित होनेके कारण पुष्पोंद्वारा पूजनेके योग्य हैं, न कि उक्त कामसे पीड़ित हरि-हर आदि । कारण यह पूजक जिस प्रकार कामसे रहित जिनेन्द्रकी पूजासे स्वयं भी कामरहित हो जाता है उस प्रकार काम से पीड़ित अन्यकी पूजा करनेसे वह कभी भी उससे रहित नहीं हो सकता है || ४ || यह भगवान् इन्द्रियroat a करता है और यह नैवेद्य इन्द्रियवलको देनेवाला खाद्य ( भक्ष्य ) है । फिर भी आश्चर्य है कि इस अरहंत भगवान् के आगे स्थित वह नैवेद्य जगत्के प्राणियों के नेत्रोंको आनन्ददायक शोभाको धारण करता है || ५ || चंचल अग्निशिखा से संयुक्त आरतीका दीपक जिन भगवान् के स्वच्छ शरीर में प्रतिबिम्बित होकर ऐसे शोभायमान होता है जैसे मानों वह अवशेष (अघाति) कर्मसमूहको जलाने के लिये खोजती हुई तीव्र ध्यानरूप अग्नि ही घूम रही हो || ६ || देखो वायुसे कम्पमान शरीवाला धूपका धुआँ अपने कम्पन ( चंचलता ) से मानों यहां दिशाओंरूप स्त्रियोंके मुखों में कस्तूरीके रससे निर्मित पत्रवल्ली (कपोलोंपर की जानेवाली रचना) को करता हुआ जिन भगवान् के आश्रय से प्राप्त हुए हर्षसे नाच ही रहा है ॥ ७ ॥ मैं उत्कृष्ट अमृत नामक उन्नत फल (मोक्ष) को प्राप्त करनेके लिये अनेक फलोंसे जिनेन्द्र देवकी पूजा करता हूं । यद्यपि जिनेन्द्रकी भक्ति ही समस्त फलोंको देती है, तो भी मनुष्य अज्ञानता से फलकी याचना १ श बलं । २ च प्रतिपाठोऽयम् । भ क श धूमम् । ३ श यद् द्रव्यं । ४ अ जोयितं, श जोषितं । ५ क उद्धरितं । पद्मनं० ३१

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