Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 245
________________ -559 : १०-१२] १०. सद्बोधचन्द्रोदयः 555 ) नूनमत्र परमात्मनि स्थितं स्वान्तमन्तमुपयाति तद्वहिः। तं विहाय सततं भ्रमत्यदः को बिमेति मरणान्न भूतले ॥८॥ 556) तत्त्वमात्मगतमेव निश्चितं योऽन्यदेशनिहितं समीक्षते। वस्तु मुष्टिविधृतं प्रयत्नतः कानने मृगयते स मूढधीः ॥९॥ 557 ) तत्परः परमयोगसंपदा पात्रमत्र न पुनर्बहिर्गतः। नापरेण चलि[ल ]तो यथेप्सितः स्थानलाभविभवो विभाज्यते ॥१०॥ 558) साधुलक्ष्यमनवाप्य चिन्मये यत्र सुष्टु गहने तपखिनः। अप्रतीतिभुवमाश्रिता जडा भान्ति नाट्यगतपात्रसंनिभाः ॥ ११ ॥ 559 ) भूरिधर्मयुतमप्यबुद्धिमानन्धहस्तिविधिनायबुध्य यस्। भ्राम्यति प्रचुरजन्मसंकटे पातु वस्तदतिशायि चिन्महः ॥ १२ ॥ शङ्कनीयम् । यतः सकाशात् । स्वानुभूतिविषयः गोचरः । ततः कारणात् । खपुष्पवत् नास्ति इति न ॥ ७॥ नूनं निवितम् । खान्तं मनः। अत्र परमात्मनि । स्थितम् । अन्तं विनाशम् उपयाति। तत्तस्मात्कारणात् । तं परमात्मानम् । विहाय त्यक्त्वा । अदः मनः । सततं निरन्तरम् । बहिः बाह्ये। भ्रमति। भूतले मरणात् कः न बिमेति ॥८॥ यः आत्मगतं तत्वम् अन्यदेशनिहितं निष्ठित समीक्षते। सः । मूढधीः मूर्खः। मुष्टिविधृतं वस्तु । कानने वने । प्रयत्नतः। मृगयते अवलोकयति ॥९॥ अत्र परमात्मनि । तत्परः सावधानः भव्यः । परमयोगसंपदा पात्रं भवेत् । पुनः बहिर्गतः न भवेत् । आत्मरहितः आत्मपात्रं न भवेत् । अपरेण यथा चलि[लतः सामान्यमागेचलितः । ईप्सितः स्थानलाभविभवः । न विभाव्यते न प्राप्यते ॥१०॥ यत्र चिन्मये। तपखिनः मुनीश्वराः । साधु लक्ष्यं समीचीनखभावम् । अनवाप्य अप्राप्य । अप्रतीतिभुवम् आश्रिताः मुनीश्वराः । जहा मूर्खाः । मान्ति। के इव । नाट्यगतपात्रसंनिभाः सदृशाः शोभन्ते ॥ ११॥ तत् चिन्महः। बः युष्मान् । पातु रक्षतु । किंलक्षणं महः । अतिशायि अतिशययुक्तम् । यत् चैतन्यतत्त्वम् । भूरिधर्मयुतम् अपि । अबुद्धिमान् मूर्खः । अन्धहस्तिविधिना । आस्मानम् । वह सत् ही है, न कि असत् ॥ ७॥ यहां परमात्मामें स्थित हुआ मन निश्चयसे मरणको प्राप्त हो जाता है। इसीलिये वह उसे ( परमात्माको) छोड़कर निरन्तर बाह्य पदार्थोमें विचरता है । ठीक है- इस पृथिवीतलपर मृत्युसे कौन नहीं डरता है ! अर्थात् उससे सब ही डरते हैं ॥ ८॥ चैतन्य तत्त्व निश्चयसे अपने आपमें ही स्थित है, उस चैतन्यरूप तत्त्वको जो अन्य स्थानमें स्थित समझता है वह मूर्ख मुट्ठीमें रखी हुई वस्तुको मानों प्रयत्नपूर्वक वनमें खोजता है ॥९॥ जो भव्य जीव इस परमात्मतत्त्वमें तल्लीन होता है वह समाधिरूप सम्पत्तियोंका पात्र होता है, किन्तु जो बाह्य पदार्थोमें मुग्ध रहता है वह उनका पात्र नहीं होता है। ठीक हैजो दूसरे मार्गसे चल रहा है उसे इच्छानुसार स्थानकी प्राप्तिरूप सम्पत्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥ १० ॥ जो तपस्वी अतिशय गहन उस चैतन्यखरूप तत्त्वके विषयमें लक्ष्य (वेध्य ) को न पाकर अतत्त्वश्रद्धान (मिथ्यात्व) रूप भूमिकाका आश्रय लेते हैं वे मूढबुद्धि नाटकके पात्रोंके समान प्रतीत हैं। विशेषार्थजिस प्रकार नाटकके पात्र राजा, रंक एवं साधु आदिके मेषको ग्रहण करके और तदनुसार ही उनके चरित्रको दिखला करके दर्शक जनोंको यद्यपि मुग्ध कर लेते हैं, फिर भी वे यथार्थ राजा आदि नहीं होते । ठीक इसी प्रकारसे जो बाह्य तपश्चरणादि तो करते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित होनेके कारण उस चैतन्य तत्त्वका अनुभव नहीं कर पाते हैं वे योगीका भेष ले करके भी वास्तविक योगी नहीं हो सकते ॥ ११ ॥ अज्ञानी प्राणी बहुत धर्मोवाले जिस चेतन तत्त्वको अन्ध-हस्ती न्यायसे जान करके अनेक जन्म-मरणोंसे भयानक इस संसारमें परिभ्रमण करता है वह अनुपम चेतन तत्त्वरूप तेज आप सबकी रक्षा १मश निश्चितं । २ 'सावधानः नास्ति ।

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