Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 181
________________ १०७ -298 : ३-४६] ३. अनित्यपञ्चाशत् सजीभूतघनापदुन्नतधनुःसंलग्नसंहच्छरं नो पश्यन्ति समीपमागतमपि झुद्धं यमं लुब्धकम् ॥ ४४ ॥ 297) मृत्योर्गोचरमागते निजजने मोहेन यः शोककृत् नो गन्धो ऽपि गुणस्य तस्य बहवो दोषाः पुनर्निश्चितम् । दुःखं वर्धत एव नश्यति चतुर्वर्गो मतेर्विभ्रमः पापं रुक् च मृतिश्च दुर्गतिरथ स्यादीर्घसंसारिता ॥ ४५ ॥ 298) आपन्मयसंसारे क्रियते विदुषा किमापदि विषादः। कास्यति लङ्घनतः प्रविधाय चतुष्पथे सदनम् ॥ ४६॥ लक्ष्मीम् । व्याधमृगी भिल्लमृगीम् । अतीव चपलाम् आश्रित्य पुत्रादीन् अपरान् मृगान् । अतिरुषा कोपेन । सेय॑म् ईर्ष्यायुक्त यथा स्यात्तथा। निम्नन्ति मारयन्ति । किल इति सत्ये। क्रुद्धं यमं लुब्धकं समीपम् आगतम् अपि नो पश्यन्ति। किंलक्षणं यमव्याधम् । सज्जीभूतघनापदुन्नतधनुःसंलग्नसंहृत् शरं बाणम् ॥ ४४ ॥ अत्र लोके । निजजने। मृत्योर्गोचरं यमस्य गोचरम् । आगते सति । यः मूढः । मोहेन शोककृत् भवति । तस्य जनस्य । गुणलेशोऽपि गन्धोऽपि वासनामात्रम् अपि नो अस्ति । पुनः निश्चितं दोषा बहवः सन्ति । तस्य शोकी[कि जनस्य दुःखं वर्धते। एव निश्चितम्। चतुर्वर्गः धमार्थकाममोक्षाः। नश्यति। तस्य मतेः विभ्रमः । स्याद्भवेत् । तस्य पाएं भवति । तेन पापेन रुक् रोगं भवति । तेन रुजा मृतिः मरणं भवति । च पुनः । दुर्गतिः भवति । अथ तया दुर्गत्या दीर्घसंसारिता । स्याद्भवेत् ॥ ४५ ॥ आपन्मयसंसारे आपदि सत्याम् । विदुषा पण्डितेन । विषादः किं क्रियते । अपि तु न क्रियते । च पुनः । चतुष्पथे । सदनं गृहं वा शयनम् । प्रविधाय कृत्वा । लङ्घनतः उपद्रवात् । आपत्तियोंरूपी धनुषको सुसज्जित करके उसके ऊपर संहार करनेवाले बाणको रख लिया है तथा जो अपने समीपमें आ चुका है ऐसे उस क्रोधको प्राप्त हुए यमरूपी व्याधको भी नहीं देखते हैं ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार हिरण व्याधके द्वारा पकड़ी गई (मरणोन्मुख ) हिरणीके निमित्तसे ईर्ष्या युक्त होकर दूसरे हिरणोंका तो घात करते हैं, परन्तु वे उस व्याधकी ओर नहीं देखते जो कि उनका वध करनेके लिये धनुष-बाणसे सुसज्जित होकर समीपमें आ चुका है । ठीक उसी प्रकारसे राजा लोग चंचल राज्यलक्ष्मीके निमित्तसे क्रुद्ध होकर अन्यकी तो बात क्या किन्तु पुत्रादिकोंका भी घात करते हैं, परन्तु वे उस यमराज ( मृत्यु ) को नहीं देखते जो कि अनेक आपत्तियोंमें डालकर उन्हें ग्रहण करनेके लिये समीपमें आ चुका है । तात्पर्य यह कि जो धन-सम्पत्ति कुछ ही समय रहकर नियमसे नष्ट हो जानेवाली है उसके निमित्तसे मनुष्योंको दूसरे प्राणियों के लिये कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये । किन्तु अपने आपको भी नश्वर समझकर कल्याणके मार्ग में लग जाना चाहिये ॥ ४४ ॥ अपने किसी सम्बन्धी पुरुषका मरण हो जानेपर जो अज्ञानके वश होकर शोक करता है उसके पास गुणकी गन्ध (लेश मात्र) भी नहीं है, परन्तु दोष उसके पास बहुत-से हैं; यह निश्चित है । इस शोकसे उसका दुख अधिक बढ़ता है; धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थ नष्ट होते हैं; बुद्धिमें विपरीतता आती है, तथा पाप ( असातावेदनीय ) कर्मका बन्ध भी होता है, रोग उत्पन्न होता है, तथा अन्तमें मरणको प्राप्त होकर वह नरकादि दुर्गतिको प्राप्त होता है । इस प्रकार उसका संसारपरिभ्रमण लंबा हो जाता है ॥ ४५॥ इस आपत्तिस्वरूप संसारमें किसी विशेष आपत्तिके प्राप्त होनेपर विद्वान् पुरुष क्या विषाद करता है ? अर्थात् नहीं करता । ठीक है-चौरस्तेमें ( जहां चारों ओर रास्ता जाता है) मकान बनाकर कौन-सा मनुष्य लांघे जानेके भयसे दुखी होगा ! अर्थात् कोई नहीं होगा ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार चौरस्तेमें स्थित रहकर यदि कोई मनुष्य गाड़ी आदिके द्वारा कुचले जानेकी आशंका करता है तो यह १श चतुर्वर्गः नश्यति ।

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