Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 224
________________ १५० पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [494:४५494 ) यः केनाप्यतिगाढगाढममितो दुःखप्रदैः प्रग्रहैः बद्धो ऽन्यैश्च नरो रुषा घनतरैरापादमामस्तकम् । एकस्मिन् शिथिले ऽपि तत्र मनुते सौख्यं स सिद्धाः पुनः किं न स्युः सुखिनः सदा विरहिता बाह्यान्तरैर्बन्धनैः ॥९॥ 495 ) सर्वज्ञः कुरुते परं तनुभृतः प्राचुर्यतः कर्मणां रेणूनां गणनं किलाधिवसतामेकं प्रदेशं धनम् । इत्याशास्वखिलासु बद्धमहसो दुःखं न कस्मान्मह न्मुक्तस्यास्य तु सर्वतः किमिति नो जायेत सौख्यं परम् ॥ १० ॥ भवेयुः । अपि तु सुखिनः भवेयुः । ये सिद्धाः समस्तकर्मविषमध्वान्तप्रबन्धच्युताः समस्तकर्मबन्धनरहिताः । ये सिद्धाः सद्बोधाः। ये सिद्धाः त्रिलोकाधिपाः ॥ ८॥ यः नरः केन अपि पुरुषेण रुषा' क्रोधेन । अन्यैः प्रग्रहैः रज्जुभिः । अभितः सर्वत्र । अतिगाढगाढम् आपादं आमस्तकं बद्धः । किंलक्षणैः प्रग्रहैः । धनतरैः दुःखप्रदैः । तत्र तेषु बन्धनेषु । एकस्मिन् बन्धने शिथिले सति । स नरः बद्धनरः । सौख्यं मनुते। पुनः सिद्धाः बाह्यान्तरैः बन्धनैः विरहिताः सदा सुखिनः किं न स्युः भवेयुः । अपि तु सुखिनः भवेयुः ॥९॥ किल इति सत्ये । तनुमृतः जीवस्य । कर्मणां रेणूनां गणनं पर प्राचुर्यतः सर्वज्ञः कुरुते । किंलक्षणानां कर्मरेणूनाम् । एकैकप्रदेशं धनं निबिडम् अधिवसताम् इति अखिलासु आशाम परमाणषु । बद्धमहसः कर्मपरमाणुभिः वेष्टितैजीवस्य । कस्मान्महदुःखं न । अपि तु दुःखम् अस्ति । अस्य मुक्तस्य कर्मबन्धनरहितस्य । सर्वतः परं सौख्यं किमिति नो जायेत । अपि भला जो सिद्ध जीव समस्त कर्मरूपी घोर अन्धकारके विस्तारसे रहित हो चुके हैं वे तीनों लोकोंके अधिपति होकर उत्तम ज्ञान ( केवलज्ञान ) और अनन्त सुखसे सम्पन्न कैसे न होंगे ? अवश्य होंगे ॥ ( विशेषार्थएकेन्द्रिय जीवोंके जितनी अधिक मात्रामें ज्ञानावरणादि कर्मोंका आवरण है उससे उत्तरोत्तर द्वीन्द्रियादि जीवोंके वह कुछ कम है। इसीलिये एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय और उनकी अपेक्षा त्रीन्द्रियादि जीव उत्तरोत्तर अधिक ज्ञानवान् एवं सुखी देखे जाते हैं। फिर जब वही कर्मोंका आवरण सिद्धोंके पूर्णतया नष्ट हो चुका है तब उनके अनन्तज्ञानी एवं अनन्तसुखी हो जानेमें कुछ भी सन्देह नहीं रहता ॥ ८ ॥ जो मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यके द्वारा क्रोधके वश होकर पैरसे लेकर मस्तक तक चारों ओर दुःखदायक दृढ़तर रस्सियोंके द्वारा जकड़ कर बांध दिया गया है वह उनमेंसे किसी एक भी रस्सीके शिथिल होनेपर सुखका अनुभव किया करता है। फिर भला जो सिद्ध जीव बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही बन्धनोंसे रहित हो चुके हैं वे क्या सदा सुखी न होंगे ? अर्थात् अवश्य होंगे ॥ ९॥ प्राणीके एक प्रदेशमें सघनरूपसे स्थित कर्मों के प्रचुर परमाणुओंकी गणना केवल सर्वज्ञ ही कर सकता है। फिर जब सब दिशाओंमें अर्थात् सब ओरसे इस प्राणीका आत्मतेज कर्मोंसे सम्बद्ध (रुका हुआ) है तब उसे महान् दुःख क्यों न होगा ? अवश्य होगा। इसके विपरीत जो यह सिद्ध जीव सब ओरसे ही उक्त कर्मोंसे रहित हो चुका है उसके उत्कृष्ट सुख नहीं होगा क्या ? अर्थात् अवश्य होगा ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि इस संसारी प्राणीके एक ही आत्मप्रदेशमें इतने अधिक कर्मपरमाणु संबद्ध हैं कि उनकी गिनती केवल सर्वज्ञ ही कर सः ता है, न कि हम जैसा कोई अल्पज्ञ प्राणी । ऐसे इस जीवके सब ही ( असंख्यात ) आत्मप्रदेश उन कर्मपरमाणुओंसे संबद्ध हैं । अब भला विचार कीजिये कि इतने अनन्तानन्त कर्मपरमाणुओंसे बंधा हुआ यह संसारी प्राणी कितना अधिक दुखी और उन सबसे रहित हो गया सिद्ध जीव १ श 'रुषा' नास्ति । २ श आपदां। ३ श वेष्टितो। ४ श यस्य ।

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