Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 230
________________ AAAAAAAAAw पभनन्दि-पञ्चविंशतिः [510: ८-२५510) सिद्धात्मा परमः परं प्रविलसद्वोधः प्रबुद्धात्मना येनाशायि स किं करोति बहुभिः शास्त्रैर्बहिर्वाचकैः । यस्य प्रोगतरोचिरुज्ज्वलतनुर्भानुः करस्थो भवेत् ध्वान्तध्वंसविधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान् ॥ २५ ॥ 511 ) सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सहर्शनाः सर्वत्राखिलवस्तुजातविषयव्यासक्तबोधत्विषः । सर्वत्र स्फुरदन्नतोषतसदानन्दात्मका निश्चला: सर्वथैव निराकुलाः शिवसुखं सिद्धाः प्रयच्छन्तु नः ॥ २६ ॥ 512) आत्मोत्तुङ्गगृहं प्रसिद्धबहिराद्यात्मप्रमेदक्षणं बह्वात्माध्यवसानसंगतलसत्सोपानशोभान्वितम् । तत्रात्मा विभुरात्मनात्मसुहृदो हस्तावलम्बी समा. रुह्यानन्दकलत्रसंगतभुवं सिद्धः सदा मोदते ॥ २७ ॥ आवर्ण्यते ॥ २४ ॥येन मुनिना प्रबुद्धात्मना । परं [परमः] श्रेष्ठः । सिद्धात्मा। अज्ञायि ज्ञातः। किंलक्षणः परमात्मा। प्रविलसद्बोधः । स ज्ञानवान् बहुभिः बहिर्वाचकैः शास्त्रैः किं करोति । यस्य पुंसः। ध्वान्तध्वंसविधौ करस्थः भानुः सूर्यः भवेत् स कि रत्नप्रदीपादिकान् मृगयते अवलोकयते । अपि तु न मृगयते। किंलक्षणः भानुः । प्रोद्गतरोचिरज्वलतनुः ॥ २५॥ सिद्धाः। नः अस्मभ्यम् । शिवसुखं प्रयच्छन्तु ददतु । किलक्षणाः सिद्धाः । सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सद्दर्शनाः केवलदर्शनाः । पुनः किंलक्षणाः सिद्धाः। सर्वत्र अखिलवस्तुजातविषयव्यासक्तबोधत्विषः सर्वपदार्थसमूहगोचराः आसक्तज्ञानदीप्तयः । पुनः किंलक्षणाः सिद्धाः । सर्वत्र स्फुरदुन्नतोन्नतसत्-आनन्दात्मकाः। निश्चलाः । पुनः किंलक्षणाः सिद्धाः । निराकुलाः । एवंभूताः सिद्धाः सुखं ददतु ॥ २६ ॥ सिद्धः सदा मोदते । आत्मा। विभुः राजा । तत्र आत्मोत्तुङ्गगृह समारुह्य मोदते। किंलक्षणं गृहम् । लक्ष्यके विषयमें सम्बन्धको करता है वही बाण कहा जाता है ॥ विशेषार्थ- जो बाण अपने लक्ष्यका वेधन करता है वही बाण प्रशंसनीय माना जाता है, किन्तु जो बाण अपने लक्ष्यके वेधनेमें असमर्थ रहता है वह वास्तव बाण कहलानेके योग्य नहीं है। इसी प्रकार जो भव्य जीव प्रयोजनीभूत आत्मतत्त्वके विषयमें जानकारी रखते हैं वे ही वास्तवमें प्रशंसनीय हैं । इसके विपरीत जो न्याय, व्याकरण एवं ज्योतिष आदि अनेक विषयों के प्रकाण्ड विद्वान् होकर भी यदि प्रयोजनीभूत आत्मतत्त्वके विषयमें अज्ञानी हैं तो वे निन्दाके पात्र हैं। कारण यह कि आत्मज्ञानके विना जीवका कभी कल्याण नहीं हो सकता । यही कारण है कि द्रव्यलिंगी मुनि बारह अंगोंके पाठी होकर भी भव्यसेनके समान संसारमें परिभ्रमण करते हैं तथा इसके विपरीत शिवभूति (भावप्राभृत ५२-५३) मुनि जैसे भव्य प्राणी केवल तुष-माषके समान आत्मपरविवेकसे ही संसारसे मुक्त हो जाते हैं ॥ २४ ॥ जिस विवेकी पुरुषने सम्यग्ज्ञानसे विभूषित केवल उत्कृष्ट सिद्ध आत्माका परिज्ञान प्राप्त कर लिया है वह बाह्य पदार्थों का विवेचन करनेवाले बहुत शास्त्रोंसे क्या करता है ! अर्थात् उसे इनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता । ठीक ही है-जिसके हाथमें किरणोंके उदयसे संयुक्त उज्ज्वल शरीरवाला सूर्य स्थित होता है वह क्या अन्धकारको नष्ट करनेके लिये रत्नके दीपक आदिको खोजता है ! अर्थात् नहीं खोजता है ॥ २५ ॥ जो सिद्ध जीव समस्त आत्मप्रदेशोंमें कर्मबन्धनसे रहित हो जानेके कारण सब आत्मप्रदेशोंमें व्याप्त समीचीन दर्शनसे सहित हैं, जिनकी समस्त वस्तुसमूहको विपय करनेवाली ज्ञानज्योतिका प्रसार सर्वत्र हो रहा है अर्थात् जो सर्वज्ञ हो चुके हैं, जो सर्वत्र प्रकाशमान शाश्वतिक अनन्त सुखस्वरूप हैं, तथा जो सर्वत्र ही निश्चल एवं निराकुल हैं; ऐसे वे सिद्ध हमें मोक्षसुख प्रदान करें ॥ २६ ॥ जो आत्मारूपी उन्नत भवन प्रसिद्ध बहिरात्मा आदि भेदोंरूप खण्डों ( मंजिलों) से सहित तथा बहुत-सी आत्माके परिणामोंरूप सुन्दर सीढ़ियोंकी शोभासे संयुक्त है उसमें आत्मारूप मित्रके हाथका १ क श्रेष्ठं। २ क भानु भवेत् । ३ क समूहैः गोचर आसक्त, अ प्रतौ तु त्रुटितं जातं पत्रमत्र । ४ श स्फुरतउन्नतोन्नत ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359