Book Title: Padmanandi Panchvinshti
Author(s): Balchandra Siddhantshastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh

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Page 204
________________ १३० पचनन्दि-पञ्चविंशतिः [413 : ६-१७ 413) पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः॥१७॥ 414 ) गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते शानलोचनम् । समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ॥ १८ ॥ 415) ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदिते ऽपि दिवाकरे ॥ १९ ॥ 416 ) ये पठन्ति न सच्छास्त्रं सहुरुप्रकटीकृतम् । तेऽन्धाः सचक्षुषोऽपीह संभाव्यन्ते मनीषिभिः ।। 417) मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च । यैरभ्यासे गुरोः शास्त्रं न श्रुतं नावधारितम्॥२१॥ 418) देशव्रतानुसारेण संयमो ऽपि निषेव्यते । गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवतम् ॥ २२॥ 419 ) त्याज्यं मांसं च मद्यं च मधूदुम्बरपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिणो दृष्टिपूर्वकाः ॥२३॥ धर्मश्रवणं कर्तव्यम् ॥ १६ ॥ बुधैः पण्डितैः । अन्यानि कार्याणि पश्चात् कर्तव्यानि । यतः कारणात् । धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुःपदार्थानां मध्ये । आदौ धर्मः । प्रकीर्तितः कथितः ॥ १७॥ गुरोः प्रसादेन कृत्वा ज्ञानलोचन लभ्यते । येन ज्ञानलोचनेन समस्तं निस्तुषं लोकालोकं दृश्यते। का इव । हस्तरेखा इव ॥१८॥ ये श्रावकाः। गुरुं न मन्यन्ते। ये श्रावकाः तस्य गुरोः उपास्ति सेवाम् । न कुर्वते । तेषां श्रावकाणाम् । उदितेऽपि प्रकाशयुकेऽपि । दिवाकरे सूर्ये । अन्धकारः भवेत् ॥ १९ ॥ ये अज्ञानिनः मूर्खाः । सच्छास्त्रं समीचीनं शास्त्रं न पठन्ति । किंलक्षणं शास्त्रम् । सनुरुप्रकटीकृतम् । ते मूर्खाः । इह जगति संसारे । सचक्षुषः चक्षुर्युक्ता अपि । मनीषिभिः पण्डितैः । अन्धाः । संभाव्यन्ते कथ्यन्ते ॥ २०॥ अहम् एवं मन्ये । तेषां नराणाम् । प्रायशः बाहुल्येन । कर्णाः न । च पुनः । तेषां नराणां हृदयानि न । यैः नरैः । गुरोः अभ्यासे निकटे । शास्त्रं न श्रुतम् । यैः नरैः शास्त्रं न अवधारितम् ॥ २१ ॥ गृहस्थैः नरैः। देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि । निषेव्यते सेव्यते । येन कारणेन । तेन संयमेन व्रतम् । फलवत् सफलम् । जायते ॥ २२ ॥ मसिं त्याज्यम् । च पुनः । मर्च त्याज्यम् । च पुनः। मधु त्याज्यम् । वन्दना करके धर्मश्रवण करना चाहिये ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् अन्य कार्योको करना चाहिये, क्योंकि, विद्वान् पुरुषोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोमें धर्मको प्रथम बतलाया है ॥ १७ ॥ गुरुकी ही प्रसन्नता से वह ज्ञान (केवलज्ञान ) रूपी नेत्र प्राप्त होता है कि जिसके द्वारा समस्त जगत् हाथकी रेखाके समान स्पष्ट देखा जाता है ॥ १८ ॥ जो अज्ञानी जन न तो गुरुको मानते हैं और न उसकी उपासना ही करते हैं उनके लिये सूर्यका उदय होनेपर मी अन्धकार जैसा ही है ॥ विशेषार्थ- यह ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानकी प्राप्ति गुरुके ही प्रसादसे होती है । अत एव जो मनुष्य आदरपूर्वक गुरुकी सेवा-शुश्रूषा नहीं करते हैं वे अल्पज्ञानी ही रहते हैं। उनके अज्ञानको सूर्यका प्रकाश मी दूर नहीं कर सकता । कारण कि वह तो केवल सीमित बाह्य पदार्थोके अवलोकनमें सहायक हो सकता है, न कि आत्मावलोकनमें । आत्मावलोकनमें तो केवल गुरुके निमित्तसे प्राप्त हुआ अध्यात्मज्ञान ही सहायक होता है ॥१९॥ जो जन उत्तम गुरुके द्वारा प्ररूपित समीचीन शास्त्रको नहीं पढ़ते हैं उन्हें बुद्धिमान् मनुष्य दोनों नेत्रोंसे युक्त होनेपर भी अन्धा समझते हैं ॥ २०॥ जिन्होंने गुरुके समीपमें न शास्त्रको सुना है और न उसको हृदयमें धारण भी किया है उनके प्रायः करके न तो कान हैं और न हृदय मी है, ऐसा मैं समझता हूं ॥ विशेषार्थकानोंका सदुपयोग इसीमें है कि उनके द्वारा शास्त्रोंका श्रवण किया जाय-उनसे सदुपदेशको सुना जाय । तथा मनके लाभका भी यही सदुपयोग है कि उसके द्वारा सुने हुए शास्त्रका चिन्तन किया जाय- उसके रहस्यको धारण किया जाय । इसलिये जो प्राणी कान और मनको पा करके भी उन्हें शास्त्रके विषयमें उपयुक्त नहीं करते हैं उनके वे कान और मन निष्फल ही हैं ॥ २१ ॥ श्रावक यदि देशव्रतके अनुसार इन्द्रियोंके निग्रह और प्राणिदयारूप संयमका भी सेवन करते हैं तो इससे उनका वह व्रत ( देशव्रत) सफल हो जाता है । अभिप्राय यह है कि देशव्रतके परिपालनकी सफलता इसीमें है कि तत्पश्चात् पूर्ण संयमको भी धारण किया जाय ॥ २२ ॥ मांस, मद्य, शहद और पांच उदुम्बर फलों (ऊमर, कठूमर, पाकर, १ म अपि मूर्खाः मनीषिमिः ।

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