Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 4
________________ दान - प्रशस्ति स्वर्गीय सेठ खूबचंदजी खंडेलवाल जातीय बाकवाल गोत्रोत्पन्न लालगढ (बीकानेर - राजस्थान) निवासी थे। आपने आसाम प्रान्त में प्रवास व्यापार से असीम सम्पत्तिप्राप्त की थी सालिगराम जब चुनीलाल बहादुर नामकी आसाम प्रान्त में प्रसिद्ध फर्म है उसके आप भागीदार थे । आपने विक्रम स०१६६३ तक व्यापार में योग दियाथा इसके बाद पुत्रों पर भार दे धार्मिक जीवन अपने राम ( लालगढ) में रहकर विताया श्राप सरलस्वनावी स्पष्टवादी निर्भीक परोपकारी दयालु धार्मिक व्यक्ति थे । प्रतिदिन गृहस्थ के पट कर्म (दान, आ आदि) पालते थे । गुप्त दान देना आपकी विशेषता थी । पुण्योदय से आपके अतुल सम्पत्ति थी ही, परन्तु धनिकों को महा दुर्लभ पुत्र पौत्रादि विभूतियां भी आपके यथेष्ट थीं । आपका जन्म विक्रम संवत् १६३३ में, और वर्गवास १६६६ में हुआ था। आपके पास अन्तिम समय पुत्र पुत्रियां, पुत्रबधुए, पोते पोतो, दोहिते इतियां सब मिलकर ६५ संतान थीं । शेठ साहव जंगलको अनेक जडी बूटियोंको पहजानते थे उनके द्वारा बड़े बड़े रोगोंको वात की रात में परोपकार बुद्धि से दूर कर दिया करते थे । मयोपेथिक औषधों के भी ज्ञाता थे इस लिये मिसे और बडनगर दि० जैन औषधालयकी श्रष बियोंसे निःस्वार्थ सेवा रोगियोंकी किया करते थे स्वयं अपने हाथ कबूतरोंको दाना चुगाते थे । और परोपकार के अनेक काम किया करते थे इसलिये यंजन आपसे प्रेम करते थे । आप सद्गुरुओं के बहुत ज्यादा भक्त थे । ० मुनिराज चन्द्रसागरजी के दर्शनार्थ सकुटुम्ब कितनी ही वार गये थे । भारत भरके तीर्थ - जैन बद्री सम्मेदशिखरजी गिरनारजी आदि की यात्रा सपनी धर्मपत्नी, पुत्र पुत्रबधुयों, पुत्रियों आदि के कई बार की थी । Jain Education International आपको जीवन भर कोई भी कौटम्बिक विपत्ति न आई | आप सदा निराकुल सुखी धर्म में संलग्न आपने व्रत उपवास उद्यापन अदि धार्मिक क्रियाऐं उत्साह पूर्वक कर आगे के लिये सुख प्राप्तिका मार्ग खुला कर लिया था । आपकी (सेठ खूब चन्दजीकी) धर्मपत्नी सजातीय प्रसिद्ध उच्चकुल में उत्पन्न हुई थीं । आपका नाम सार्थक प्यारी बाई था । आप स्व० सेठ कनीरामजी पांडया जसरासर निवासी सुजानगढ (राजस्थान) प्रवासीकी पुत्री और सेठ दीपचन्दजी पांड्या की बाहेन थी। आपका सौभाग्य अतुलनीय था । आपके पुण्योदयसे सम्पत्तिकं साथ साथ कौटुम्बिक सुख सन्तान भी दिन पर दिन वृद्धिंगत होती रही । आप पुत्रवधू, पौत्रबधू पुत्रियों, प्रपुत्रियों आदि पर प्रेमका एकसा बर्ताव करती थी। गांवका हर जाति का हर स्त्रीपुरुष आपके उदर करणापूर्ण व्यवसे (लोकप्रियता में चार चांद लगा दिये थे । प्रसन्न था। आपके गुप्तदान करनेके स्वभाव ने त्यागी मुनि आर्यिका यादि व्रती धार्मिक पुरुषों की वैयावृत्ति तन मन धन से भक्ति पूर्वक करती थी कितनी बार मुनिराज श्री १०८ चन्द्रसागरजी महाराजके दर्शन पुत्र पुत्रवधू आदि परिवार के साथ आपने किये थे । श्रीपूज्य आर्यिका माताजी वीरमानजी, शान्तिमतिजी, पार्श्वमतिजी, कुन्थु मातेजी, इन्दुमतिजी की वैयावृत्ति बहुत भक्तिसे सदा करती थीं । इनही सव कारणोंसे आपकी सल्लेखना बहुत अच्छी तरह सम्पन्न हुई । आप के पुत्र पुत्रवधू. पुत्रीयां आदि सवने ही मृत्यु समय धर्माराधन में सहायतादी और सतत अभ्यासके कारण स्वयंभी धर्मारावन में सावधान रहीं । पूजन पाठ शास्त्र श्रवण बारह भावनाओं का चिन्तवन, और चार आराधनाओंका श्राराधन करती रहीं । दान देना तो अन्तिम समय तक बन्द नही किया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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