Book Title: Nabhak Raj Charitram Bhashantar
Author(s): Merutungasuri
Publisher: Dosabhai Lalchand Shah
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________________ भावार्थ-एम विचार करी श्रीशचुंजय तीर्थथी साथे आवेला में तमारा शत्रुओने दृढ बंधनोथी बांधी लीधा हता. परंतु हुं अल्पशक्तिवाळो छु, तेथी मारा स्थान सिवाय अन्य स्थाने रहेवा समर्थ नयी // 93 // ___ अतो याताऽस्मि तौव, परं यानदियस्य मे। प्रत्यन्दं सुकृतं देयं, प्रपेदे सोऽपि तद्वचः // 94 // .. ... -- भावार्थ-माटे हुं मारा स्थानके जाउं छु. पण छेवटमां मारे तमोने एटलं जणाववार्नु के, तमारे दर वर्षे मारा निमित्ते वे यात्रान पुण्य देवं. आ प्रमाणे ज्यारे व्यंतर देवे पोतानो समस्त व्यतिकर राजाने स्पष्ट कही बता अने छेवटनी बे यात्राना पुण्यनी मागणी करी त्यारे राजाए पण तेनुं वचन मान्य कर्यु // 94 // यतः- .. यवस्तु दीयते चेत्तत्, सहस्रगुणमाप्यते। तहत्ते सुकृते पुण्यं, फापे पापं च तद्गुणम् // 95 // भावार्थ--जे वस्तु दान तरीके आपवामां आवे छे, तेथी हजारगणी प्राप्त थाय छे. वळी जे सुकृतने विषै। / अपाय छे ते पुण्य आपे छ, अने जे पाप आरंभकारी कार्यमा अपाय छे ते तेटलाज गणुं पाप आपे छे. // 95 // दीयमानं धनं किंञ्च, धनिकस्याऽपचीयते / सुकृतं दीयमानं तु, धनिकस्योपचीयते // 96. // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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