Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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आदि कही जाती है। दूसरे शब्दों में एक ही धर्मी अपेक्षा भेद से अनेक धर्म वाला कहा जाता है। द्रव्य की नित्यता व पर्यायों की अनित्यता भी सांख्य एवं योग दर्शन में भी उसी रूप में स्वीकृत है जिस रूप में वह जैन दर्शन में। यह इस तथ्य का सूचक है कि सत्ता की बहुआयामिता के कारण उसकी अनैकान्तिक व्याख्या ही अधिक संतोषप्रद लगती है। सांख्य दर्शन में अनेक ऐसे तत्त्व हैं जो परस्पर विरोधी होते हुए भी एक सत्ता के सदर्भ में स्वीकृत हैं जैसे - सांख्य दर्शन में मन को ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय दोनों माना गया। इसी प्रकार उसके २५ तत्त्वों में बुद्धि, अहंकार तथा पाँच तन्मात्राओं को प्रकृति व विकृति दोनों कहा गया है। यद्यपि प्रकृति व विकृति दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। इसी प्रकार पुरुष के संदर्भ में भी अपेक्षा भेद से भोक्तृत्व व अभोक्तृत्व दोनों स्वीकृत हैं अथवा प्रकृति में सांसारिक पुरुषों की अपेक्षा से प्रवृत्यात्मकता व पुरुष की अपेक्षा से निवृत्यात्मकता दोनों ही स्वभाव स्वीकार किए गये हैं।
मीमांसा दर्शन में भी द्रव्य की नित्यता व आकृति की अनित्यता उसी प्रकार स्वीकार की गयी जिस प्रकार वह पांतजल दर्शन में स्वीकार की गयी । सर्वप्रथम मीमांसा दर्शन में ज्ञाता, ज्ञेय व ज्ञानरूपता वाले त्रिविध ज्ञान को ज्ञान कहा गया। दूसरे शब्दों में ज्ञान के त्रयात्मक होने पर भी उसे एकात्मक माना । ज्ञान में ज्ञाता स्वयं को; ज्ञान के विषय को और अपने ज्ञान तीनों को जानता है। ज्ञान में यह त्रयात्मकता रही है फिर भी उसे ज्ञान ही कहा जाता है। यह ज्ञान की बहुआयामिता का ही एक रूप है। पुन: मीमांसा दर्शन में कुमारिल ने स्वयं ही सामान्य व विशेष में कथंचित् तादात्म्य एवं कथंचित् भेद धर्मधर्मी की अपेक्षा से भेदाभेद माना है। मीमांसाश्लोकवार्तिक में वस्तु की उत्पाद, व्यय व ध्रौव्यता को इसी प्रकार प्रतिपादित किया गया है जिस प्रकार से उसे जैन परम्परा में प्रतिपादित किया गया है।
जब स्वर्णकलश को तोड़कर कुण्डल बनाया जाता है तो जिसे कलश की अपेक्षा है उसे दुःख व जिसे कुण्डल की अपेक्षा है उसे सुख होता है किन्तु जिसे स्वर्ण की अपेक्षा है उसे माध्यस्थभाव है । वस्तु की यह त्रयात्मकता जैन व मीमांसा दोनों दर्शनों में स्वीकृत है। चाहे शांकर वेदान्त अपने अद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परमसत्ता को अपरिणामी मानता हो किन्तु उसे भी अन्त में परमार्थ और व्यवहार इन दो दृष्टियों को स्वीकार करके परोक्ष रूप से अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार करना पड़ा क्योंकि उसके अभाव में इस परिवर्तनशील जगत् की व्याख्या सम्भव नहीं थी। इस प्रकार सभी भारतीय दर्शन किसी न किसी रूप में अनेकांत शैली को स्वीकार करते हैं।
जैन परम्परा में अनेकान्तवाद का विकास :
जैनदर्शन में अनेकान्त दृष्टि की उपस्थिति अति प्राचीन है। जैन साहित्य में
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