Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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दृष्टियों को सापेक्ष रूप से अर्थात् विविध नयों के आधार पर सत्य मानने की बात कही। इसी के आधार पर जैन दार्शनिकों ने अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी का विकास किया। बुद्ध एवं महावीर दोनों का लक्ष्य व्यक्ति के एकान्तिक अवधारणाओं में पड़ने से बचाना था। किन्तु इनके इस प्रयास में जहां बुद्ध ने उन एकान्तिक धारणाओं को त्याज्य बताया, वहीं महावीर ने उन्हें सापेक्षिक सत्य कहकर समन्वित किया।
इससे यह तथ्य फलित होता है कि स्यावाद एवं शून्यवाद दोनों का मूल उद्गम स्थल एक ही है। विभज्यवादी पद्धति तक यह धारा एकरूप रही किन्तु अपनी विधायक एवं निषेधक दृष्टियों के परिणाम स्वरूप दो भागों में विभक्त हो गई जिन्हें हम स्याद्वाद व शून्यवाद के रूप में जानते हैं।
इस प्रकार सत्ता के विविध आयामों एवं उसमें निहित सापेक्षिक विरुद्ध धर्मता को देखने का जो प्रयास औपनिषदिक ऋषियों ने किया था वही आगे चलकर श्रमण धारा में स्याद्वाद व शून्यवाद के विकास का आधार बना। अन्य दार्शनिक परम्पराएँ और अनेकांतवाद
यह अनेकान्त दृष्टि श्रमण परम्परा के अन्य दार्शनिकों में भी प्रकार भेद से उपलब्ध होती है। संजयवेलट्ठिपुत्र का मन्तव्य बौद्ध ग्रन्थों में निम्न रूप से प्राप्त होता है
(१) है? नहीं कह सकता। (२) नहीं है? नहीं कह सकता। (३) है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता। (४) न है और न नहीं है? नहीं कह सकता।
इससे यह फलित होता है कि संजयवेलट्ठिपुत्र भी एकान्तवादी दृष्टि के समर्थक नहीं थे। उनकी उत्तर देने की शैली अनेकान्त दृष्टि की ही परिचायक है। यही कारण था कि राहुल सांकृत्यायन जैसे विचारकों ने यह अनुमान भी किया कि संजयवेलट्ठिपुत्र के दर्शन के आधार पर ही जैनों ने स्याद्ववाद व सप्तभंगी का विकास किया। किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि संजयवेलट्ठि की यह दृष्टि निषेधात्मक है। अस्ति, नास्ति एवं अवक्तव्यसप्तभंगी नय के ये जो तीन मूल नय हैं वे तो उपनिषद् काल से पाये जाते हैं। मात्र यही नहीं उपनिषदों में हमें सत्-असत्, उभय व अनुभय अर्थात् ये चार भंग भी प्रकीर्ण रूप से उपलब्ध होते हैं। औपनिषदिक चिन्तन एवं उसके समानान्तर विकसित श्रमण परम्परा में यह अनेकान्त दृष्टि किसी न किसी रूप में अवश्य उपस्थित रही है किन्तु उसके
अभिव्यक्ति की शैली भिन्न है। इस युग के बाद भारतीय चिन्तन के दार्शनिक युग में भी विविध दर्शनों ने इस शैली को अपनाया हैं।
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