Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 15
________________ ( १० ) एवं सैद्धान्तिक आदि विभिन्न दष्टियों से इसके अलग-अलग विषयों पर स्वतन्त्र अध्ययन भी आवश्यक हैं । इतना ही नहीं अपितु प्राकृत, संस्कत, अपभ्रश, कन्नड एवं तमिल आदि प्राचीन भाषाओं के उन प्रतिनिधि ग्रन्थों का समीक्षात्मक अध्ययन आज के युग में अति आवश्यक है जिनमें मानवीय, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का गहन विवेचन है, ताकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गिर रहे नैतिक मूल्यों की पुनस्र्थापना हेतु मानव समाज के नव-निर्माण में उनका प्रयोग किया जा सके । इस दृष्टि से यदि प्रस्तुत अध्ययन निश्चित ही भारतीय आचारशास्त्र के विभिन्न आयाम उद्घाटित करने में उपादेय बन सका तो मैं अपना श्रम सार्थक समझंगा। ____ मेरी दृष्टि में श्रमणाचार से सम्बन्धित प्राकृत भाषा के किसी ग्रन्थ का राष्ट्रभाषा में यह पहला समीक्षात्मक अध्ययन है। इसमें प्राकृत, पालि, संस्कृत, अपभ्रश तथा अन्यान्य भाषाओं के शताधिक मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं के उन सभी विषयों का यथास्थान पूरा उपयोग किया गया है जो मलाचार में प्रतिपाद्य विषयों से सम्बद्ध रहे हैं। मेरे द्वारा शास्त्रीय सिद्धान्तों के कथन में कोई विपर्यास न हो ऐसी पूरी सजगता रखने का प्रयास किया है । अत: मैं ने प्रारम्भ से ही इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि प्रयुक्त ग्रन्थों के मूल सन्दर्भो के आधार पर ही विषय प्रतिपादन किया जाय ताकि महान् ग्रन्थकारों के हार्द को प्रगट किया जा सके । इसीलिए उन ग्रन्थों के प्राय: अत्यावश्यक मूल सन्दर्भो को यथावत् उद्धृत भी किया गया है ताकि यदि मेरी कोई चूक हुई हो तो सुधी पाठक उनके आधार पर सही आशय ग्रहणकर, उसे मुझे सूचित करने की कृपा कर सकें। प्रकाशन हेतु प्रेस में देने से पूर्व ही इस प्रबन्ध में आवश्यक परिवर्धन संशोधन एवं परिवर्तन कर लिया था किन्तु मुझे यह भी अनुभव हुआ कि विषयों के प्रतिपादन में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर तथा अन्य परम्पराओं के उन ग्रन्थों की महत्त्वपूर्ण सामग्री का उपयोग भी आवश्यक है जिनका पहले पूरा उपयोग नहीं किया था। अतः मैंने प्रत्येक अध्याय को पुन: व्यवस्थित रूप में लिखना प्रारम्भ किया ताकि विशाल वाङमय में उपलब्ध सामग्री के आधार पर विषय के स्पष्ट विवेचन में कभी न रहे । जैसे-जैसे प्रत्येक अध्याय का पुनर्लेखन पूरा होता गया, उसे प्रेस में देते गये। यही कारण है कि इसके प्रकाशन में काफी समय लग गया। किन्तु दीर्घकालीन इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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