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२: मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन साहित्य के माध्यम से भारतीय साहित्य एवं चिन्तन के उत्कर्ष में अभिवृद्धि कर उसे गौरव के शिखर पर बैठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । स्व-पर-कल्याण हेतु संयम मार्ग पर चलते हुए उन्होंने प्रायः सभी भाषाओं एवं सभी विधाओंजैसे उच्च-तत्त्वज्ञान, विज्ञान, धर्म-दर्शन, साहित्य, संगीत, इतिहास, पुराण, महापुरुषों के चरित्र, कला, काव्य, गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष, व्याकरण, कोश और बहुमूल्य व्यावहारिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन की पद्धतियों से सम्बन्धित विपुल वाङ्मय का सृजन करके अपने जीवन को सार्थक किया है । अपने देश के ही नहीं अपितु विश्व के वे सभी मनीषी जो इस जैन साहित्य का गहराई से अवलोकन करते हैं, वे जैनाचार्यों के इस समुज्ज्वल एवं समुन्नत ज्ञान, अद्भुत प्रतिभा के समक्ष नतमस्तक हुए बिना नहीं रहते । उनका मानना है कि सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति, सभ्यता, धर्म-दर्शन, समाज, अर्थ एवं राजनीति तथा आचार आदि विभिन्न विधाओं का सम्पूर्ण ज्ञान जैन साहित्य के अध्ययन के बिना अधूरा है।
विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण जैन साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है-१. प्रथमानुयोग के अन्तर्गत महापुरुषों के चरित्र से सम्बन्धित ग्रन्थ, २. करणानयोग में लोक-अलोक का विभाग तथा चारों गतियों का स्वरूप आदि का प्रतिपादन करने वाले समस्त ग्रन्थों का समावेश है। ३. चरणानुयोग में देशचारित्र और सकल चारित्र अर्थात् श्रावकों एवं मुनियों के चारित्र (आचार) का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ तथा ४. द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत सात तत्त्व, पुण्य, पाप और छह द्रव्यों आदि का प्रतिपादन करने वाले आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं तत्वज्ञान से सम्बन्धित ग्रन्थों का समावेश है। मुलाचार
- इन चारों अनुयोगों में यहाँ चरणानुयोग के अन्तर्गत श्रमणाचार से सम्बन्धित उस 'मूलाचार' नामक अति प्राचीन ग्रन्थ का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसे दिगम्बर परम्परा में 'आचारांग' नाम से भी अभिहित किया जाता है। शौरसेनी, अर्धमागधी संस्कृत एवं अपभ्रंश आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं में आचार-विषयक काफी साहित्य उपलब्ध है । जैसे दिगम्बर परम्परा में भगवती आराधना, मूलाचार, पवयणसार, अठ्ठपाहुड, रयणसार, अनगार धर्मामृत, चारित्रसार, आचारसार आदि तथा श्वेताम्बर परम्परा में आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि अनेक आचार विषयक विशिष्ट ग्रन्थ उपलब्ध हैं । दिगम्बर परम्परा के श्रीमद् वट्टकेराचार्य प्रणीत एवं जैन शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध इस मूलाचार नामक मूल ग्रन्थ में श्रमण-निर्ग्रन्थों की आचार संहिता का अति सुव्यवस्थित, विस्तृत एवं सांगोपांग विवेचन मिलता है । यहाँ विधि
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