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प्रस्तावना
दिगम्बर परम्परा में मूलाचार और भगवती आराधना इन दोनों ग्रन्थों का बहुत महत्त्व है। इनमें दिगम्बर मुनियों के आचार, विचार, व्यवहार, गमनागमन, वर्षाकाल, विहार चर्या, वसति-स्थान, श्रमणसंघ का स्वरूप और आयिकाओं की आचार-पद्धति का जैसा सांगोपांग वर्णन उपलब्ध है वैसा अन्य दिगंबरीय शास्त्रों में दिखाई नहीं देता। इस दृष्टि से डा० फलचन्द्र जैन 'प्रेमी' की कृति 'मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन' स्वागत योग्य समझी जायेगी। ____ जाहिर है कि भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त करने के पूर्व जैन संघ में दिगंबर-श्वेताम्बर भेद नहीं था। ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी में मथुरा में पाये जाने वाले शिलालेखों से यह कथन प्रमाणित होता है । भगवान् महावीर ने जो अपने त्याग और वैराग्य से परिपूर्ण उपदेशों द्वारा संसार का त्याग कर परमपद प्राप्त करने का मार्ग दर्शाया, वह सभी को एक जैसा मान्य था। श्रुत-परंपरा में किसी प्रकार का भेद अभी तक उत्पन्न नहीं हुआ था। अतएव विषयवस्तु और उसे व्यक्त करने के माध्यमों-प्राकृत गाथाओं आदि-में भिन्नता पैदा नहीं हुई थी, कोई भी बात सर्वसामान्य प्रचलित गाथाओं आदि द्वारा व्यक्त की जाती थी। वस्तुतः मौलिक रूप में यही निर्ग्रन्थ धर्म था ।
वट्टकेरि (कनडी में बेट्ट = अरण्य सहित लघुपर्वत, केरी रास्ता या गली अर्थात् अमुक स्थान) द्वारा रचित मूलाचार, जिसे आचारांग अथवा आचारसूत्र नाम से भी अभिहित किया गया है, उस प्राचीन काल की महत्वपूर्ण रचना है जब कि जैन संघ में दिगंबर-श्वेतांबर भेद का उदय नहीं हुआ था। इस ग्रन्थराज के अध्ययन करने से श्वेताम्बरीय प्रकीर्णकों, छेदसूत्रों (विशेषकर निशीथ, व्यवहार, व हत्कल्प) और मूलसूत्रों (विशेषकर उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक, पिंडनियुक्ति) का स्मरण हो उठता है जिनके सांगोपांग गंभीर अध्ययन के बिना जैन श्रमणसंघ के विकास की रूपरेखा अधूरी रह जाती है।
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