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( २२ ) (१) मूलाचार (१०.१८) की निम्नलिखित गाथा देखिये :
अच्चेलकुद्दे सिय सेज्जाहर रायपिंड किदियम्म ।
वद जेठ पडिक्कमणं मासणपज्जो समण कप्पो । आचेलक्य, औद्देशिक, शय्यातर-पिंड-त्याग, राजपिंड त्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास तथा पज्जोसमण (पयुषण)-ये दस स्थिति कल्प है।
भगवती आराधना में यह ४२१ वी गाथा है। श्वेताम्बरीय जीतकल्पभाष्य में यह १९७२ वी गाथा है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्य टीका-ग्रन्थों और निर्य क्तियों में यह मिलती है। 'प्रमेय कमलमार्तण्ड' के 'स्त्रीमुक्तिविचार' में प्रभाचन्द्र ने इस गाथा का उल्लेख श्वेताम्बर सिद्धांत के रूप में किया है । (डाक्टर फूलचन्द्र जी जैन ने इस कथन का समर्थन करते हुए लिखा है -'मलाचार और श्वेताम्बर परम्परा में सर्वसाधारण श्रमणों के लिए इन कल्पों का उल्लेख है, पृ० ३३७). (२) मूलाचार की दूसरी गाथा देखिये :
सेज्जागामणिसेज्जो तदोवहिपडिलेहणाहि उवग्गहिदे ।
आहारोसववायण विकिंचणं वंदणादीहिं । (५.१९४) --- शय्यावकाश रूप वसति, निषद्या (आसन आदि), उपधि, प्रतिलेखना, आहार, औषध, वाचना (शास्त्र-व्याख्यान-टीका), विकिंचन (च्युत मंत्र : का शोधन-टीका) और वंदना आदि द्वारा मुनि मुनियों का वैयावृत्य करे ।
भगवती आराधना (३०५) में भी यह गाथा उल्लिखित है। इस गाथा में जैन मुनि को रुग्णमुनि का औषध आदि द्वारा उपचार करने का विधान है । ज्ञातव्य है कि इस विधान के दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य न होने के कारण कवि वृन्दावनदास जी (विक्रम संवत् १८४२) को जो शंका पैदा हुई थी उसके समाधान के लिये उन्होंने दीवान अमरचन्द जी को पत्र लिखा था।
४. डॉक्टर आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये अपने ढग के बहुत बड़े विद्वान् हो गये हैं । उन्होंने दिगंबरीय ग्रन्थों का ही नहीं, श्वेताम्बर ग्रन्थों का भी पारायण किया था। रविषेणकृत बहत्कथा कोश की अपनी विद्वत्तापूर्ण इण्ट्रोडक्शन में (सिंघी सीरीज, १९४३) उन्होंने शिवार्यकृत भगवती
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