________________
( २४ ) मूलाचार की अन्य समानान्तर गाथायें :
उपरोक्त गाथाओं के सिवाय मूलाचार में उल्लिखित और भी कतिपय गाथायें ऐसी हैं जो श्वेतांबरीय ग्रन्थों में मिलती हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि ये निग्रन्थ परम्परा की सर्वमान्य गाथायें हैं जिनमें दिगंबरत्व अथवा श्वेताम्बरत्व देखने की आवश्यकता नहीं, अतएव इनमें आदान-प्रदान का प्रश्न भी पैदा नहीं होता । उदाहरणार्थ यदि कुन्दकुन्दकृत बारस अणुवेक्खा अथवा नियमसार आदि की गाथायें मूलाचार में मिल जायें तो इससे कुन्दकुन्द का पूर्वकालीन और वट्टकेर का उत्तरकालीन होना सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार की गाथायें जैसा कहा जा चुका है, जैन परम्परा में सर्व सामान्य रूप में प्रचलित थीं जिनका उपयोग कोई भी जैन आचार्य निस्संकोच कर सकता था। कर्म साहित्य सम्बन्धी कितनी ही गाथायें ऐसी हैं जिनका समावेश दिगम्बर एवं श्वेताम्बर आचार्यों ने कर्म साहित्य सम्बन्धी अपनी-अपनी रचनाओं में किया है। इसके अतिरिक्त 'श्रमण-काव्य' (ascetic poetry) सम्बन्धी कितनी ही गाथायें एवं कथा प्रसंग ऐसे हैं जो जैन, बौद्ध और ब्राह्मण परम्पराओं में समान रूप से उल्लिखित हैं; दशबैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, धम्मपद, सुत्तनिपात, संयुत्तनिकाय, थेरगाथा, इतिवृत्तक, जातककथा तथा महाभारत आदि से इनकी तुलना की जा सकती है । इस सम्बन्ध की कतिपय गाथायें यहाँ उद्धृत की जाती हैं; (क) कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये । कधं भुंजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण बज्झदि ।
-मूलाचार १०.१२१ जदं चरे जदं चिठे जदमासे जदं सये। . जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ ॥
-मूलाचार १०.१२२ तुलनीय
कहं चरे कह चिट्टे, कहमासे कह सये । ... कहं भुजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ।।
-देशवकालिक ४.६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org