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मूलाचार का अध्ययन :
१. अभी कुछ वर्ष पूर्व पश्चिम जर्मनी की फ्री बलिन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर चन्द्रभाल श्रिपाठी ने स्ट्रासबर्ग युनिवर्सिटी (Bibliotheque Nationale Et Universitaire De Strasbourg) में उपलब्ध Ja grogfosfaat #1 99794 (Catalogue of the Jaina Manuscripts at Strasbourg, Leiden, 1975) नामक एक महत्त्वपूर्ण कैटलॉग प्रकाशित किया है । इस बृहदाकार कैटलॉग की प्रस्तावना में प्रोफेसर त्रिपाठी ने बताया है कि किस प्रकार जैन विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् अन्स्ट लॉयमान (१८५९-१९३१) ने अनेक पांडुलिपियों की सहायता से आवश्यक नियुक्ति और इससे सम्बन्धित आवश्यक जैन ग्रन्थों का आलोचनात्मक अध्ययन कर अपना महत्त्वपूर्ण प्रबन्ध (Vebersicht veber die Avasyaka Literatur (आवश्यक साहित्य का सर्वेक्षण हाम्बुर्ग, १९३४) प्रकाशित किया था।
उक्त ग्रन्थालय की पाण्डुलिपियों में वट्टके र रचित मूलाचार की पाण्डु. लिपि भी मौजूद है जिस पर आचार्य वसुनन्दी की सर्वार्थसिद्धि अपरनाम आचारवृत्ति टीका है । पुस्तक के अन्त में प्रतिलिपि करने वाले ने लिखा है : अथास्मिन् शुभ संवत्सरे श्री नृपति-विक्रमादित्यराज्ये संवत् १८९५ कार्तिक कृष्णा ६ बुधवासरे तद्दिने समाप्तमिदं मूलाचार-नाम-ग्रन्थम् । मतलब यह है कि राजा विक्रमादित्य के काल में संवत् १८९५ में यह पाण्डुलिपि तैयार की गई । लॉयमान ने अपने उपरोक्त प्रबन्ध (पृष्ठ १५ आदि) में मूलाचार की चर्चा की है । उपलब्ध पांडुलिपि के आधार पर इस प्रबन्ध (पृष्ठ १६-१९) में मूलाचार के षडावश्यकाधिकार नामक सातवें अध्ययन का सम्पादन भी किया। लॉयमान वटकेर को आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती मानते हैं। (जैन पाण्डुलिपियों का कैटलॉग सीरियल, नं० ७७, पृष्ठ १३४. ३८)। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्राचीन निर्ग्रन्थ परम्परा में षट् आवश्यकों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा -ये नित्य किये जाने वाले कर्म थे-ये आवश्यक क्रियानुष्ठान समझे जाते थे। इनमें अंतरंग की मनोवृत्तियों पर जोर दिया गया है, बाह्य क्रियाओं पर नहीं । यही कारण है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेतांबरीय ग्रन्थों में आवश्यक का काफी विस्तार है और आवश्यकसूत्र पर जितनी टीका-टिप्पणियां उपलब्ध हैं उतनी अन्य
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