________________
( १३ ) कारण प्रकाशन में हुए विलम्ब को धैर्यपूर्वक सहा । साथ ही समय-समय पर इसकी पांडुलिपि को देखकर आवश्यक सुझावों के साथ ही अपने चिन्तन एवं विचारों द्वारा लाभान्वित किया।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में हमारे श्रमण विद्या संकाय के पूर्व अध्यक्ष स्व० प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय जी का मैं आजीवन ऋणी रहूँगा, जो मेरे विकास के लिए निरन्तर प्रेरणायें प्रदान करते रहे। आपने जब इस ग्रन्थ की पांडुलिपि एनं आधे से अधिक प्रकाशित अंश देखा था, तभी से इस विषय के अध्ययन की महत्ता के कारण इसके प्रकाशन की प्रगति के प्रायः रोज ही समाचार पूछ लेते थे। हमारे एवं आ० डॉ० गोकुलचन्द जी के आग्रह पर आपने इस पर विस्तृत भूमिका लिखने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान की थी, किन्तु खेद है कि इसे वे प्रकाशित रूप में म देख सके और एक महान् चिन्तक मनीषी की महत्त्वपूर्ण भूमिका से हम वञ्चित रह गये। . इस ग्रन्थ की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना के लिए सम्मान्य डॉ. जगदीश चन्द्र जी जैन, बम्बई का अत्यन्त आभारी हूँ। आपको गम्भीर प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रास्ताविक अध्याय की अत्यावश्यक पूरक ईकाई बन गई है । आपने अतिव्यस्तता के बावजूद इस ग्रन्थ का जिस रुचि एवं आत्मीयता के साथ अवलोकन कर अपने अगाध ज्ञान का परिचय अपनी प्रस्ताबना में दिया, उनके इस सौहार्द से मुझे बहुत बल और गौरव प्राप्त हुआ है । परमपूज्य १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज, पद्मभूषण आचार्य पं० बलदेव उपाध्याय, सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री, आ० पं० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने इस ग्रन्थ को पढ़ कर शुभाशीष एवं सम्मति से गौरवान्वित करने की कृपा की।
पार्शनाथ विद्याश्रम के पूर्व निदेशक आ० डॉ० मोहनलाल जी मेहता एवं स्व० प्रो० रमाकान्त त्रिपाठी (तत्कालीन दर्शन विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) का अत्यन्त कृतज्ञ हूँ जिनके सम्यक निर्देशन में मझे यह शोध कार्य सम्पन्न करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रारम्भिक मार्गदर्शन के लिए आ० डॉ० सुदर्शनलाल जी जैन, (रीडर, संस्कृत विभाग, बी.एच.यू.) एवं श्री गणेशवर्णी दि० जैन संस्थान वाराणसी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org