Book Title: Mulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 13
________________ ( ८ है, जो कि सुदूर अतीत से हमारी संस्कृति का संवाहक रहा है। विविध भाषाओं में रचित इस साहित्य ने अपनी प्रवहमान संस्कारशीलता और प्राणी मात्र के पूर्ण आत्म-कल्याण की भावना के माध्यम से हमारी संस्कृति को ऋतुचक्र सी सौन्दर्यमयता प्रदान की है। किन्तु यह महत्त्वपूर्ण साहित्य तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन की दृष्टि से प्रायः उपेक्षित रहा है । इसी अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए जैन शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित्र श्रमणाचार से सम्बन्धित सर्वाधिक प्रामाणिक एवं प्राचीन प्रतिनिधि ग्रन्थ 'मूलाचार' को मैंने अपने शोध एवं समीक्षात्मक अध्ययन का विषय बनाया। ___ मूलाचारकार आचार्य वट्टकेर की यह एकमात्र कति उपलब्ध है किन्तु इससे ही उनके अगाध ज्ञान, बहुमुखी प्रतिभा तथा विशुद्ध आचार-विचार के धनी होने का ज्ञान होता है। प्रस्तुत प्रबन्ध के छह अध्यायों में मूलाचार ग्रन्थ के उपलब्ध प्रामाणिक सांस्करणों एवं प्राचीन पांडुलिपियों के आधार पर इसकी सम्पूर्ण विषयवस्तु को अच्छे से अच्छे रूप में प्रस्तुत करने का पूरा प्रयास किया गया है। प्रास्ताविक नामक प्रथम अध्याय में मूलाचार की विषयवस्तु, कर्तृत्व तथा अन्य ग्रन्थों से तुलना आदि का विस्तार से विवेचन है । द्वितीय अध्याय में अट्ठाईस मूलगुणों का भेद-प्रभेद सहित सांगोपांग अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । तृतीय अध्याय में उत्तरगुणों के अन्तर्गत शील, तप, परीषह, पञ्चाचार, दस धर्म एवं अनुप्रेक्षाओं का अन्यान्य परम्पराओं के शास्त्रों के आधार पर तुलनात्मक विवेचन विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया गया है । आहारविहार और व्यवहार नामक चतुर्थ अध्याय तथा श्रमण संघ नामक पंचम अध्याय में इन विषयों से सम्बन्धित सभी पक्षों पर शौरसेनी, अर्धमागधी, पालि और संस्कत भाषा से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थों की सामग्री का उपयोग विषय प्रतिपादन में किया गया है। आर्यिकाओं की आचार पद्धति कुछ पक्षों को छोड़कर श्रमणों के समान प्रतिपादित होने से इसका विस्तार से प्रतिपादन करने वाला दिगम्बर परम्परा में कोई स्वतन्त्र प्राचीन ग्रन्थ नहीं है। यहां प्रस्तुत इस विषयक विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण में काफी कठिनाई हुई किन्तु उपलब्ध मूल ग्रन्थों में यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री को संजोकर प्रस्तुत करने का यहाँ प्रथम प्रयास किया गया है ताकि आगे इसके विस्तृत एवं स्वतन्त्र अध्ययन की महत्ता का मार्ग प्रशस्त हो सके । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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