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राजकुमार
तो राजकुमार ही है।
प्र. मा.- क्या बात है ! 'स्वाश्रित' जब आपने कहा तो इसमें कविता का कोई भावक, कोई सामाजिक, कोई रसज्ञ,
कोई उसका ग्रहण करने वाला भी अभिहित है या नहीं ? क्या आप यह मानकर चलते हैं कि मैंने काव्य 'स्वान्तः - सुखाय' लिख दिया । वह हवा में या शून्य में रहे, कोई न भी पढ़े तो परवाह नहीं ?
आ. वि. रसोइया जो है न, वह पाकशास्त्र को जानता है । पाकशास्त्र जानने वाला व्यक्ति अपने 'पाक' को दूसरों तक पहुँचाने की कोशिश अवश्य करता है ।
प्र. मा. - करता ही है। मतलब दूसरा है उसके मन में ?
आ. वि. - हाँ ! लेकिन दूसरा है, इसलिए मन में है, ऐसा नहीं । वह अपने में उत्पन्न करता है कि जो खाने के लिए आया, उसको पूछने नहीं जाता कि आपको क्या चाहिए या कैसे बनाऊँ । हाँ, जितना खाना है, उतना खा लो । लेकिन मैं बनाऊँगा तो अपने रस पाकज्ञान से
बनाऊँगा ।
प्र. मा. - 'स्वाश्रित' में 'पर' यह जो है उसका स्वाद लेने वाला है, स्वादक निहित है ।
आ.वि. - 'स्व' के साथ वह भोजन तो कर ही रहा है, स्व के साथ दूसरों को भी लाभ हो जाय तो ठीक है, किन्तु वह गौण ही है ।
प्र. मा. - क्या आप कविता को संवाद नहीं मानते ? आ. वि. - नहीं।
प्र. मा. - केवल आत्माभिव्यक्ति मानते हैं ?
आ. वि. - नहीं। वो तो संवाद में आ ही नहीं सकता ।
मूकमाटी-मीमांसा :: xvii
प्र. मा. - संवाद से मेरा मतलब है - सम्प्रेषण । यानी कोई और है जिससे मैं बात करना चाहता हूँ ।
आ. वि. - 'वद्' धातु से 'वाद' बना है तो फिर कविता
लिए वद् से जुड़ा ही नहीं ।
प्र. मा. - हाँ ! हाँ !! वाद, विवाद, संवाद, प्रवाद आदि । तो वाद या भाषा जैसा आप कह रहे हैं, वह केवल आत्माभिव्यक्ति है यानी स्वाभाविक ही है ।
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आ. वि. - इसीलिए 'मूकमाटी' में लिखा है - परावाक्, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी । ये चारों हैं लेकिन ये सारे के सारे योगीगम्य हैं, मात्र वैखरी ही श्रोत्रेन्द्रिय का विषय बन पाती है।
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प्र. मा. काव्य का अन्त मुझे ऐसा लगा कि आपने कुछ जल्दी कर दिया। मुझे समझ में नहीं आया कि अन्त में क्या होता है इस घड़े को लेकर के मूकमाटी का ।
आ. वि. - उसकी पूर्णता हो गई। उसकी यात्रा पूर्ण हो गई मौन में । वह मौन में लीन है और जब पूर्णता हो जाती है, तो अनुभूति आ जाती है। जब अनुभूति हो जाती है तब वचन को, वाक्य को विराम मिलता है।'' फिर बोलना, क्या बोलना ?
प्र. मा. - यह जो आपकी धारणा है वह बहुत कुछ झेन बौद्ध धर्म के निकट है। मैं बहुत से झेन बौद्ध मठों में गया । मैंने वहाँ देखा है कि वे लोग पत्थरों को जमा कर लेते हैं और बैठे रहते हैं और सोचते हैं कि झरना है । चन्द्रमा की तरफ देखते हैं और घण्टों बैठे रहते हैं, बात नहीं करते हैं। खाली कप में पानी रहता है उसे थोड़ा-थोड़ा पीते हैं। समझते हैं कि चाय पी रहे हैं। ये जो झेन है, वह 'ध्यान' से निष्पन्न है। उनका कहना है कि जैसे हाथ पर हाथ मारें तो आवाज होती है, वैसे ही एक हाथ से भी आवाज़ आनी चाहिए। वे वर्षों केवल इसी आवाज़ को सुनते हैं हवा में । मेरे लिए यह विचित्र स्थिति है कि 'जो है, उसको हम नहीं है' तक ले जाते हैं। वाणी