Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra View full book textPage 8
________________ 7 एक ही है उसकी लिपिगत अशुद्ध पाठ की जगह संभवित शुद्ध पाठ वर्तुलाकार कोष्ठक () में दिया है। प्रत में क्वचित् अधिक अक्षर, पद आदि का प्रवेश हो गया है, उसे चौरस कोष्ठक में दिया है। प्रकरण की मूल गाथाओं का टीका में परिवर्तन किया गया है । ( उदा. गाथा २२, ४१, ४७, ८२, ८३, ८४, ८५, ९१, ९२, ९३, १२, १३३) मूल की गाथा तथा वृत्ति की गाथा के क्रम में भी थोडा सा भेद दिखाई देता है। मूल की १६९ गाथा है तथा वृत्ति की १७० गाथा है। यहां पर वृत्ति सम्मत पाठ को अंतिम मानकर संपादन किया है। टीका के पाठों का भी परिमार्जन हुआ है अर्थात् अनभीष्ट पाठ को टीकाकार ने स्वयं निकाल दिया है। ऐसे पाठ को निकालना ही उचित समझा है। कुछ एक स्थान पर टीकाकार ने अपनी ओर से टिप्पणी भी लिखी है। यह टिप्पणी पादटीप (फूटनोट) में दी है। परिशिष्ट में मनः स्थिरीकरण प्रकरण मूल (परि. १), गाथार्द्ध का अकारादि अनुक्रम (परि.२), उद्धरणस्थल संकेत (परि. ३) के साथ साथ मनःस्थिरीकरण प्रकरण के पदार्थों को विशद रूप से समझने के लिये परिशिष्ट ४ में यंत्र कोष्ठक दिये है। = परिशिष्ट-५ में आचार्यश्री सोमसुन्दरसू. म. कृत 'मनः स्थिरीकरण विचार' नामक कृति दी है। इस में मनःस्थिरीकरण प्रकरण के पदार्थ उसी क्रम से गुजराती भाषा में प्रस्तुत किये गये है। इसे हम मनःस्थिरीकरण प्रकरण की गुजराती आवृत्ति कह सकते है । 'मनः स्थिरीकरण विचार' की दो हस्तप्रत उपलब्ध हुई है। (१) पहली प्रत जैन ज्ञानभंडार, संवेगी उपाश्रय, हाजा पटेलनी पोळ, अमदावाद की है (डा. नं. १२९ - प्र.नं. ४६५४ [२४] )। इस प्रत के १२ पत्र है। प्रत्येक पत्र में १६ पंक्तियां एवं प्रत्येक पंक्ति में ६० अक्षर है। पत्र का माप २५/१०.५ है । हमें प्रति की प्रतिछाया ( झेरोक्षकोपी) ही उपलब्ध हुई है, अतः प्रत की स्थिति के विषय में कहने के लिये अक्षम है। मूलतः यह प्रत श्री दयाविमल भंडार, काळुशीनी पोळ अमदावाद की थी ऐसा इस के उपर अंकित मुद्रा (स्टेम्प) से लगता है। प्रत के अंत में लेखक की प्रशस्ति इस प्रकार है- परमगुरुभट्टारकप्रभुश्रीगच्छनायकसोमसुन्दरसूरिभिः कृतं मुनिलावण्यसागरपठनार्थम् । इस का लेखनकाल संभवतः १८वी शताब्दी का उत्तरार्द्ध प्रतीत होता है। प्रत पूर्ण है । पू. आ. श्री कलाप्रभसागरसू.म.सा. की कृपा से यह कोपी उपलब्ध हुई है। (२) दूसरी प्रत भोगीलाल लहेरचंद संशोधन संस्थान, दिल्ली की है (AC No. B 647/0/DL00000/ 30777, DVD 182)। अंत में लेखक की प्रशस्ति इस प्रकार है- परमगुरुभट्टारकप्रभुश्रीगच्छनायकसोमसुन्दरसूरिभिः कृतम् । इस प्रत का लेखनकाल संभवतः १८ वी शताब्दी का उत्तरार्द्ध प्रतीत होता है। अमदावाद की प्रत से यह अर्वाचीन लगती है। प्रत के पत्र ३२ है। पत्र का माप २८ / ११.५ है ।। प्रत्येक पत्र में ९ पंक्तियां एवं प्रत्येक पंक्ति में ४२ अक्षर है। हमें प्रति की प्रतिछाया ( झेरोक्षकोपी) ही उपलब्ध हुई है, अतः प्रत की स्थिति के विषय में कहने के लिये अक्षम है। प्रत पूर्ण है। संपादन के लिये यह प्रती छायाप्रति (झेरोक्ष) प्रदान करने के लिये संस्था का आभारी हूं। पूज्य आ. श्री मुनिचंद्रसू.म. की कृपा से यह कोपी उपलब्ध हुई है। ६ ग्रंथकार कृत आयुःसारसंग्रह नामक कृति प्रस्तुत विषय की उपयोगी है अतः उसका समावेश परिशिष्ट में किया है। ८० गाथा प्रमाण इस लघुकृति में चार गति के जीवों के आयुष्य का विचार किया गया है। यह कृति अद्यावधि अप्रगट है। इस की हस्तप्रत पाटण के संघवी पाडा स्थित ताडपत्रीय भंडार में (क्रमांक ११८/२) है। यह ‘आर्द्रकुमार कथानक आदि' नामक प्रत की पेटा - कृति है, जो पत्र क्रमांक २६ से शुरू होकर पत्र क्रमांक ३१ पे समाप्त होती है। प्रत्येक पत्र में ६ पंक्तियां एवं प्रत्येक पंक्ति में ६५ अक्षर है। हमेंPage Navigation
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