Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra View full book textPage 7
________________ 6 प्रत्येक पंक्ति में ५२ अक्षर है। हमें प्रति की प्रतिछाया ( झेरोक्षकोपी) ही उपलब्ध हुई है, अतः पत्र का माप एवं प्रत की स्थिति के विषय में कहने के लिये अक्षम है। लेखनकाल वि.सं. १९ वी सदी का उत्तरार्द्ध है। प्रत के अंत में लेखक पुष्पिका इस प्रकार है- विजयकमलसूरि- प्राचीनपुस्तकोद्धारफंड तरफी जैनानन्दपुस्तकालय माटे लखावी ।। गोपीपुरा, सुरत ।। स्पष्ट है कि यह प्रत भी अर्वाचीन है और प्रत ए कुल की है। प्रत पूर्ण है। इन तीन हस्तप्रतों से अतिरिक्त मनः स्थिरीकरण प्रकरण की अन्य हस्तप्रत से हम अवगत नहीं है। प्रत बी और सी अर्वाचीन है । यह दोनों प्रत पाटण के भण्डार की ताडपत्रीय प्रति ( = प्रत ए ) के कुल की ही है। प्रत ए का लेखनकाल निश्चित करने के साधन नही है । लिपिकार की लेखनशैली एवं अक्षरों के आकारप्रकार से यह अनुमान होता है कि यह प्रत चौदहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखी गई होगी। परंतु संपादन करते समय यह ज्ञात हुआ कि- प्रकरण की मूल गाथाओं का टीका में परिवर्तन किया गया है। टीका के पाठों का भी परिमार्जन हुआ है। टीकाकार ने अपनी और से टिप्पणी भी लिखी है। अतः यह अनुमान है कि यह प्रत कर्ता ने स्वयं अपने हाथों से लिखी है। यदि यह अनुमान सच है तो इस प्रत का लेखनकाल तेरहवी सदी का उत्तरार्द्ध है। मनः स्थिरीकरण प्रकरण की इस प्रत से प्राचीन प्रत कोई नहीं है । आश्चर्य की बात तो यह है कि ७०० साल के दीर्घ कालावधि में इतने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया है। इसी कारण इस प्रकरण की प्रतिलिपि नही हुई है। यहां तक कि बृहट्टिप्पणीकाकार ने भी इसका उल्लेख नही किया है। तेरहवी शताब्दी के बाद बीसवी शताब्दी में यह ग्रंथ प्रकाश में आया। ऐसा भी नहीं है कि यह ग्रंथ विद्वानों में प्रचलित नहीं था। पंद्रहवी शताब्दी में आचार्यश्री सोमसुन्दरसू. म. ने मनः स्थिरीकरण प्रकरण का आधार लेकर मारुगुर्जर भाषा में 'मनः स्थिरीकरण विचार' नामक कृति की रचना की है। अतः उसकी उपादेयता अवश्य थी किंतु किसी अगम्य कारण से यह ग्रंथ प्रचलित नहीं हो पाया। आचार्यश्री महेन्द्रसिंहसू. म. अंचलगच्छ के है अतः अंचलगच्छ के वर्तमान पुरोधा विद्याप्रेमी मनीषीप्रवर आचार्यश्री कलाप्रभसागरसू.म. ने कुछ वर्ष पूर्व इस ग्रंथ का संपादनकार्य प्रारंभ किया था। इस कार्य के लिये प्राज्ञवर्य श्री रूपेंद्रकुमार पगारिया को नियुक्त किया था। पगारियाजी ने परिश्रमपूर्वक लिप्यंतर, संपादन निष्पन्न किया। प्रस्तावना आदि से सज्ज हो कर ग्रंथ मुद्रण के लिये तैयार भी हो चुका था, परंतु किसी कारणवश प्रकाशित न हो पाया। पूज्य आचार्यश्री ने यह कार्य विदुषी साध्वी श्रीचंदनबालाश्रीजी को सौंपा। श्रुतभवन इस ग्रंथ का संपादन हो रहा है यह जानकर साध्वीवर्या ने आचार्यश्री कलाप्रभसागरसू.म. का निर्देश प्राप्त कर पगारियाजी द्वारा संपन्न सामग्री भेज दी । यह सामग्री प्राप्त होने से पूर्व ताडपत्र की (पाटण) प्रत के आधार पर लिप्यंतर और प्राथमिक संपादन हो चुका था । पगारियाजी द्वारा संपन्न सामग्री के कारण संशोधन और सटीक हो सका। अतः मैं आचार्यश्रीकलाप्रभसागरसू.म., साध्वी श्रीचंदनबालाश्रीजी म. तथा श्री रूपेंद्रकुमार पगारिया का ऋण स्वीकार करता हूं। संपादन पद्धतिः जैसा कि पूर्व कहा है- इस प्रकरण की प्राचीनतम प्रत एक ही है, अन्य प्रत अर्वाचीन है और उसके कुल की ही है। अतः पाठभेद के प्रसंग में ताडपत्र की (पाटण) प्रत को ही प्रधान किया है और पाठभेद को स्वतंत्र रूप में दर्शाना जरुरी नहीं समझा है। इस प्रकरण में जो जो गाथाएँ एवं गद्य भाग उद्धरण के रूप में दिये गये हैं उन के मूल ग्रंथों की सहायता से अशुद्ध पाठों की शुद्धि करने का प्रयास किया है। आदर्श प्रतPage Navigation
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