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महावीराष्टक - प्रवचन
पूर्व-पीठिका
जैन- परंपरा मूलत: भक्ति रस से अस्पृष्ट न रह सकी । रह भी नहीं सकती । क्योंकि जब तक मानव का हृदय रसविशेष से आप्यायित न हो, तब तक वह अपने आराध्य एवं साध्य को कैसे स्पर्श कर सकता है? आराध्य की आराधना और साध्य की साधना भक्ति रस से ही संभव है ।
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यह कथन अतिशयोक्तिभरा नहीं है कि निष्ठावान् प्रभु-भक्त का हृदय यथासमय भक्तिरसामृत का लहराता, गरजता सागर है। उस सागर से भक्ति अपने को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं तो कोई दिव्य रचना जन्म लेती है। क्या पुरातन युग, क्या मध्य युग, क्या वर्तमान युग- हर युग में महान् आचार्यों ने भक्ति-रचना की है। भक्ति - रचनाओं ने इतना विशाल रूप ले लिया है कि उसका साहित्यिक विधा में अपना एक पृथक् स्थान बन जाता है । भक्ति साहित्य की अनेक ऐसी विशिष्टतम रचनाएँ हैं जिनमें भक्तहृदय की कामनाएँ गूँथी गई हैं। अपने आराध्य की चरणवंदनाएँ, स्तुतिगान एवं महानता की यशोगाथा गाते-गाते अपने लिए भी माँग लिया है, अपना अभीप्सित । " आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिन्तु ।” आरोग्य, बोधि लाभ तथा उत्तम श्रेष्ठ समाधि प्राप्त हो ऐसी भावना व्यक्त की है; सुमधुर स्वरों में की गई प्रार्थना भक्ति - साहित्य की श्रेष्ठ रचना है। 'महावीराष्टक स्तोत्रम्' भक्तराज भागेंदु ( भागचन्द्र ) की रचना है ।
भगवान् महावीर आप्त पुरुष हैं। उनके जीवन-संदेश से दर्शन एवं धर्म की जो चिंतन- धारा प्रवाहित हुई है उसे अपनी छोटी-सी रचना में रचनाकार ने गूँथ दिया है। उनकी मंगल-प्रार्थना में न ऐश्वर्य की मांग है, न संकट-मुक्ति का निवेदन है, न स्वाथ्य लाभ की प्रार्थना है। किसी प्रकार भी कोई याचना, कामना नहीं है। एक ही प्रार्थना है 'भगवान मेरे नयनों में समा जाएं'। यह प्रार्थना ऐसी प्रार्थना है जैसे कोई सागर से प्रार्थना करे, 'तू मेरी गगरिया में आ जा ।' प्रार्थना तो प्रार्थना है। भक्त नहीं सोचता है— 'ऐसा हो सकता है ? सागर को गागर में समाते कभी देखा है ?” भक्तहृदय इन विकल्पों से परे हैं। संसार में ऐसा कुछ
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