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यदीया वाग्- गंगा विविध-नय- कल्लोल- विमला, बृहज्ज्ञानान्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदानीमप्येषा बुधजन-मरालैः परिचिता, महावीर स्वामी नयन-पथ - गामी भवतु मे ॥ ६ ॥
जिनकी वाणी की गंगा विविध प्रकार के नयों की अर्थात् वचन-पद्धतियों की तरंगों से विमल है, अपने अपार ज्ञान-जल से अखिल विश्व की संतप्त जनता को स्नान कराकर शान्ति देती है, भव-ताप हरती है, आज भी बड़े-बड़े विद्वानरूपी हंसों द्वारा सेवित है; ऐसे भगवान् महावीर स्वामी मेरे नयनपथ पर सदा विराजमान रहें, अर्थात् मेरे नयनों में समा जाएं।
भवतु मे
ऋजुबाला नदी का प्रवाह शान्त बह रहा है। संध्या उतर आई है। शाल-वन की हरीतिमा ऐसी प्रतीति करा रही है, जैसे कि स्वर्णिम आभूषणों से अलंकृत प्रकृति हरा दुशाला ओढ़े आनन्द की लाली छिटकती उत्सव में आई है ।
असाधारण उत्सव
वास्तव में वहाँ उत्सव ही था । उत्सव भी कोई साधारण नहीं, असाधारण उत्सव होने जा रहा था । कालचक्र की गति में यूं ही कहीं कुछ क्षणों में खो जानेवाला नहीं, अमिट अभिलेखों में अंकित होनेवाला । सहसाब्दियों बाद भी जन-मन को आल्हादित करनेवाले उत्सव की वह संध्या थी— वैशाख शुक्ला दशमी की ।
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अनादिकाल के अज्ञान और मोह को क्षय होते-होते अब सूक्ष्म अवस्था में जो बचे थे, उनका भी सम्पूर्ण क्षय करके एक महासूर्य उदयावस्था में आ रहा है। एक वीर, वीर ही नहीं महावीर, ध्यान की परम शुक्लावस्था में है । झाणं तरियाए वद्धमाणस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पडिपुणे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने । तए णं समणे भगवं महावीरे अरहा जाए, जिणे केवली सव्वन्नू सव्वदरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियायं जाणइ पास
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