Book Title: Mahavirashtak Pravachan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 49
________________ ४० | चन्दनाष्टकम् धवलकमलशोभा ज्ञानपुञ्ज-स्वरूपा प्रणतमवतु मां सा मानसी राजहंसी ॥ ७॥ अपने चरण कमलों का आश्रय लेने वालों के पापों को नष्ट करने में समर्थ आचार्य श्री दूसरों का हित करने में अपने प्राणों को भी प्रसन्नता पूर्वक न्योछावर करने वाली है। वे श्वेतकमल-सी सुशोभित होने वाली मानसरोवर की राजहंसी तथा शरीरधारिणी ज्ञानराशि हैं। गहनतिमिरपूर्णा मोहवश्या मतिर्मे सकलगुणसमष्टिः तेऽतिशायि स्वरूपम्। तदपि तव पदाब्जेऽनन्यभक्ति: बलान्मां विविशयति प्रदातुं शब्दपुष्पोपहारम् ।। ८॥ मेरी बुद्धि घोर अज्ञान-अंधकार से पूर्ण तथा मोह के वशीभूत है। आप सभी गुणों की समष्टि हैं तथा आपका स्वरूप वर्णन के परे हैं फिर भी आपके चरण कमलों में मेरी अनन्यभक्ति मुझे शब्द-पुष्पों का उपहार देने के लिए बलात् प्रेरित कर रही है। छन्द : अनुष्टप् चन्दनाष्टकमिदं पुण्यं, भावश्रद्धासमन्वितम्। ये पठन्ति नरा भक्त्या , तेषां सर्वत्र मंगलम् ।। भाव एवं श्रद्धायुक्त इस पवित्र चन्दनाष्टक को जो भी व्यक्ति भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं उनका सर्वत्र कल्याण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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